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सम्यग्दर्शन का अर्थविकास
डॉ. सागरमल जैन जैन-परम्परा में सम्यक्-दर्शन, सम्यक्त्व एवं सम्यक्-दृष्टि शब्दों का प्रयोग समान अर्थों में हुआ है। किन्तु आचार्य जिनभद्र ने विशेषावश्यकभाष्य में सम्यक्त्व और सम्यक्-दर्शन के भिन्न-भिन्न अर्थों का निर्देश किया है। सम्यक्त्व वह है जिसके कारण श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र सम्यक् बनते हैं। 'सम्यक्त्व' शब्द का अर्थ-विस्तार 'सम्यक्दर्शन' शब्द से अधिक व्यापक है, फिर भी सामान्यतया 'सम्यक्दर्शन' और 'सम्यक्त्व' शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त किये गये हैं। वैसे सम्यग्दर्शन शब्द में सम्यक्त्व निहित ही है। सम्यक्त्व का अर्थ—सामान्य रूप में सम्यक् या सम्यक्त्व शब्द सत्यता या यथार्थता का परिचायक है, जिसे 'उचितता' भी कह सकते हैं। सम्यक्त्व का एक अर्थ तत्त्व-रुचि है। इस अर्थ में सम्यक्त्व सत्याभिरुचि या सत्य की अभीप्सा है। उपर्युक्त दोनों अर्थों में सम्यक्-दर्शन या सम्यक्त्व नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है। जैन-नैतिकता का चरम आदर्श आत्मा के यथार्थ स्वरूप की उपलब्धि है, लेकिन .यथार्थ की उपलब्धि भी तो यथार्थ से सम्भव होती है। यदि हमारा साध्य 'यथार्थता' की उपलब्धि है, तो उसका साधन भी यथार्थ ही होना चाहिए। जैन-विचारणा साध्य और साधन की एकरूपता में विश्वास करती है। वह यह मानती है कि अनुचित साधन से प्राप्त किया गया लक्ष्य भी अनुचित ही है। सम्यक् को सम्यक् से हो प्राप्त करना होता है, असम्यक् से जो भी मिलता है या प्राप्त किया जाता है, वह भी असम्यक् ही होता है। अतः आत्मा के यथार्थ स्वरूप की प्राप्ति के लिये जिन साधनों का विधान किया गया, उनका सम्यक् होना आवश्यक माना गया। वस्तुतः ज्ञान, दर्शन और चारित्र का नैतिक मूल्य उनके सम्यक् होने में है और तभी वे मुक्ति या निर्वाण के साधन बनते हैं। यदि ज्ञान, दर्शन और चारित्र मिथ्या होते हैं तो बन्धन का कारण बनते हैं। बन्धन-मुक्ति ज्ञान, दर्शन और चारित्र पर निर्भर नहीं, वरन् उनके सम्यक् और मिथ्यापन पर आधारित है। दर्शन का अर्थ— 'दर्शन' शब्द भी जैनागमों में अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। जीवादि पदार्थों के स्वरूप को देखना, जानना, श्रद्धा करना 'दर्शन' है। सामान्यतया 'दर्शन' शब्द देखनेके अर्थ में व्यवहृत होता है, लेकिन यहां दर्शन शब्द का अर्थ मात्र नेत्रजन्य बोध नहीं है। उसमें इन्द्रिय-बोध, मन-बोध और आत्म-बोध सभी सम्मिलित हैं। दर्शन शब्द के अर्थ के सम्बन्ध में जैन-परम्परा में काफी विवाद रहा हैं। दर्शन को ज्ञान से अलग करते हुए विचारकों ने दर्शन को अन्तर्बोध या प्रज्ञा
और ज्ञान को बौद्धिक ज्ञान कहा है। नैतिक जीवन की दृष्टि से विचार करने पर दर्शन शब्द का दृष्टिकोणपरक अर्थ किया गया है। दर्शन शब्द के स्थान पर 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग, उसके दृष्टिकोणपरक अर्थ का द्योतक है। प्राचीन जैन आगमों में
* निदेशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ,वाराणसी
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