SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९८ जिनवाणी-विशेषाङ्क विशेष श्रम नहीं करना पड़ता और वस्त्र को उसके असली स्वरूप में सहज ही लाया जा सकता है। ऊपर-ऊपर का मल दूर करने में जो बल दरकार है, उसके सदृश 'यथाप्रवृत्तिकरण' है। चिकनाहट दूर करने वाले विशेष बल व श्रम के समान 'अपूर्वकरण' है। जो चिकनाहट के समान राग-द्वेष की तीव्रतम ग्रन्थि को शिथिल करता है। बाकी बचे हुए मल को किंवा चिकनाहट दूर होने के बाद फिर से लगे हुए मल को कम करने वाले बल-प्रयोग के समान ‘अनिवृत्तिकरण' है । उक्त तीनों प्रकार के बल-प्रयोगों में चिकनाहट दूर करने वाला बल-प्रयोग ही विशिष्ट है। ___ अथवा जैसे, किसी राजा ने आत्म रक्षा के लिये अपने अङ्गरक्षकों को तीन विभागों में विभाजित कर रखा हो, जिनमें दूसरा विभाग शेष दो विभागों से अधिक बलवान् हो, तब उसी को जीतने में विशेष बल लगाना पड़ता है। वैसे ही दर्शनमोह को जीतने के पहले उसके रक्षक राग-द्वेष के तीव्र संस्कारों को शिथिल करने के लिये विकासगामी आत्मा को तीन बार बल-प्रयोग करना पड़ता है। जिनमें दूसरी बार किया जाने वाला बल-प्रयोग ही, जिसके द्वारा राग-द्वेष की अत्यन्त तीव्रतारूप ग्रन्थि भेदी जाती है, प्रधान होता है। जिस प्रकार उक्त तीनों दलों में से बलवान् दूसरे अङ्गरक्षक दल के जीत लिये जाने पर फिर उस राजा की पराजय सहज होती है, इसी प्रकार राग-द्वेष की अतितीव्रता को मिटा देने पर दर्शनमोह पर जयलाभ करना सहज है। दर्शनमोह को जीता और पहले गुणस्थान की समाप्ति हुई। ऐसा होते ही विकासगामी आत्मा स्वरूप का दर्शन कर लेता है अर्थात् उसकी अब तक जो पररूप में स्वरूप की भ्रान्ति थी, वह दूर हो जाती है। अतएव उसके प्रयत्न की गति उल्टी न होकर सीधी हो जाती है। अर्थात् वह विवेकी बन कर कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का वास्तविक विभाग कर लेता है। इस दशा को जैनशास्त्र में 'अन्तरात्मभाव' कहते हैं, क्योंकि इस स्थिति को प्राप्त करके विकासगामी आत्मा अपने अन्दर वर्तमान सूक्ष्म और सहज शुद्ध-परमात्म-भाव को देखने लगता है, अर्थात् अन्तरात्मभाव, यह आत्म-मंदिर का गर्भद्वार है, जिसमें प्रविष्ट होकर उस मन्दिर में, वर्तमान परमात्म-भावरूप निश्चय देव का दर्शन किया जाता है। यह दशा विकासक्रम की चतुर्थी भूमिका किंवा चतुर्थ गुणस्थान है, जिसे पाकर आत्मा पहले पहल आध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करता है। इस भूमिका में आध्यात्मिक दृष्टि यथार्थ (आत्मस्वरूपोन्मुख) होने के कारण विपर्यास-रहित होती है, जिसको जैनशास्त्र में सम्यग्दृष्टि किम्वा सम्यक्त्व कहा है। (लोकप्रकाश, सर्ग ३, श्लोक ५९६) भयंकर पाप सर्वत्र इस संसार में सन्ताप ही सन्ताप है। सेमभाव के अभाव में तप हो रहा सब ताप है। यह सत्य है अज्ञानवत कोई नहीं अभिशाप है। निष्कर्षत: मिथ्यात्व ही सबसे भयंकर पाप है। -दिलीप धींग जैन Jain education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003977
Book TitleJinvani Special issue on Samyagdarshan August 1996
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year1996
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy