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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन नहीं लगती
सद्बोध, सवीर्य व सच्चारित्र के तर-तम भाव की अपेक्षा से सदृष्टि के भी शास्त्र में चार विभाग किये हैं, जिनमें मिथ्यादृष्टि त्याग कर अथवा मोह की एक या दोनों शक्तियों को जीतकर आगे बढ़े हुए सभी विकसित आत्माओं का समावेश हो जाता है। अथवा दूसरे प्रकार से यों समझाया जा सकता है कि जिसमें आत्मा का स्वरूप भासित हो और उसकी प्राप्ति के लिये ही प्रवृत्ति हो, वह सदृष्टि, इसके विपरीत जिसमें आत्मा का स्वरूप न तो यथावत् भासित हो और न उसकी प्राप्ति के लिए प्रवृत्ति हो वह असत् दृष्टि है। बोध, वीर्य व चारित्र के तर-तम-भाव को लक्ष्य में रखकर शास्त्र में दोनों दृष्टि के चार-चार विभाग किये गये हैं, जिनमें सब विकासगामी आत्माओं का समावेश हो जाता है और जिनका वर्णन पढ़ने से आध्यात्मिक विकास का चित्र आंखों के सामने नाचने लगता है। ___ शारीरिक और मानसिक दुःखों की संवेदना के कारण अज्ञात रूप में ही गिरि-नदी पाषाण न्याय (लोकप्रकाश, सर्ग, ३ श्लोक ६०८-६०९) से जब आत्मा का आवरण कुछ शिथिल होता है और इसके कारण उसके अनुभव तथा वीर्योल्लास की मात्रा कुछ बढ़ती है, तब उस विकासगामी आत्मा के परिणामों की शुद्धि व कोमलता कुछ बढ़ती है। जिसकी बदौलत वह रागद्वेष की तीव्रतम-दुर्भेद्य ग्रन्थि को तोड़ने की योग्यता बहत अंशों में प्राप्त कर लेता है। इस अज्ञानपर्वक दःख संवेदना-जनित अति अल्प आत्म-शुद्धि को जैन शास्त्र में 'यथाप्रवृत्तिकरण' कहा है। इसके बाद जब कुछ और भी अधिक आत्म-शुद्धि तथा वीर्योल्लास की मात्रा बढ़ती है तब राग-द्वेष की उस दुर्भेद्य ग्रन्थि का भेदन किया जाता है। इस ग्रन्थिभेदकार की आत्मशुद्धि को 'अपूर्वकरण' कहते हैं। ___क्योंकि ऐसा करण-परिणाम विकासगामी आत्मा के लिये अपूर्व-प्रथम ही प्राप्त है। इसके बाद आत्म-शुद्धि व वीर्योल्लास की मात्रा कुछ अधिक बढ़ती है, तब आत्मा मोह की प्रधानभूत शक्ति-दर्शनमोह पर अवश्य विजय लाभ करता है। इस विजयकारक आत्म-शुद्धि को जैनशास्त्र में ‘अनिवृत्तिकरण' कहा है, क्योंकि उस आत्म-शुद्धि के हो जाने पर आत्मा दर्शनमोह पर जय-लाभ किये बिना नहीं रहता, अर्थात् वह पीछे नहीं हटता। उक्त तीन प्रकार की आत्म-शुद्धियों में दूसरी अर्थात् अपूर्वकरण-नामक शुद्धि ही अत्यन्त दुर्लभ है। क्योंकि राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को रोकने का अत्यन्त कठिन कार्य इसी के द्वारा किया जाता है, जो सहज नहीं है। एक बार इस कार्य में सफलता प्राप्त हो जाने पर फिर चाहे विकासगामी आत्मा ऊपर की किसी भूमिका से गिर भी पड़े तथापि वह पुनः कभी-न-कभी अपने लक्ष्य आध्यात्मिक पूर्ण स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। इस आध्यात्मिक परिस्थिति का कुछ स्पष्टीकरण अनुभवगत व्यावहारिक दृष्टान्त के द्वारा किया जा सकता है।
जैसे, एक ऐसा वस्त्र हो, जिसमें मल के अतिरिक्त चिकनाहट भी लगी हो । उसका मल ऊपर-ऊपर से दूर करना उतना कठिन और श्रम-साध्य नहीं, जितना कि चिकनाहट का दूर करना। यदि चिकनाहट एक बार दूर हो जाय तो फिर बाकी का मल निकालने में किंवा किसी कारण-वश फिर से लगे हए गर्दे को दर करने में
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