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सम्यग्दर्शन : शास्त्रीय-विवेचन __ वस्तुतः सम्यक्-दर्शन का भाषा-शास्त्रीय विवेचन पर आधारित यथार्थ दृष्टिकोणपरक अर्थ ही उसका प्रथम एवं मूल अर्थ है, लेकिन यथार्थ दृष्टिकोण तो मात्र वीतराग पुरुष का ही हो सकता है। जहां तक व्यक्ति राग और द्वेष से युक्त है, उसका दृष्टिकोण यथार्थ नहीं हो सकता। इस प्रकार का सम्यक्-दर्शन या यथार्थ दृष्टिकोण तो साधनावस्था में सम्भव नहीं है, क्योंकि साधना की अवस्था सराग अवस्था है। साधक-आत्मा में राग-द्वेष की उपस्थिति होती है, साधक तो साधना ही इसलिए कर रहा है कि वह इन दोनों से मुक्त हो। इस प्रकार यथार्थ दृष्टिकोण तो मात्र सिद्धावस्था में होगा। लेकिन यथार्थ दष्टिकोण की आवश्यकता तो साधक के लिए है, सिद्ध को तो वह स्वाभाविक रूप में प्राप्त है। यथार्थ दृष्टिकोण के अभाव में व्यक्ति का व्यवहार तथा साधना सम्यक् नहीं हो सकती। क्योंकि अयथार्थ दृष्टिकोण ज्ञान और जीवन के व्यवहार को सम्यक् नहीं बना सकता। यहां एक समस्या उत्पन्न होती है कि यथार्थ दृष्टिकोण का साधनात्मक जीवन में अभाव होता है और बिना यथार्थ दृष्टिकोण के साधना हो नहीं सकती। यह समस्या एक ऐसी स्थिति में डाल देती है जहां हमे साधना-मार्ग की सम्भावना को ही अस्वीकृत करना होता है। यथार्थ दृष्टिकोण के बिना साधना सम्भव नहीं और यथार्थ दृष्टिकोण साधना-काल में हो नहीं सकता। लेकिन इस धारणा में भ्रान्ति है।
साधना-मार्ग के लिए या दृष्टिकोण की यथार्थता के लिए, दृष्टि का राग-द्वेष से पूर्व-विमुक्त होना आवश्यक नहीं है, मात्र इतना आवश्यक है कि व्यक्ति अयथार्थता
और उसके कारण को जाने। ऐसा साधक यथार्थता को न जानते हए भी सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि वह असत्य को असत्य मानता है और उसके कारण को जानता है। अतः वह भ्रान्त नहीं है, असत्य के कारण को जानने से वह उसका निराकरण कर सत्य को पा सकेगा। यद्यपि पूर्ण यथार्थ दृष्टि तो एक साधक में सम्भव नहीं है, फिर भी उसकी रागद्वेषात्मक वृत्तियों में जब स्वाभाविक रूप से कमी हो जाती है तो इस स्वाभाविक परिवर्तन के कारण उसे पूर्वानुभूति और पश्चानुभूति में अन्तर ज्ञात होता है और इस अन्तर के कारण के चिन्तन में उसे दो बातें मिल जाती हैं। एक तो यह कि उसका दृष्टिकोण दूषित है और दूसरी यह कि उसकी दृष्टि की दूषितता का अमुक कारण है। यद्यपि यहां सत्य तो प्राप्त नहीं होता, लेकिन अपनी असत्यता और उसके कारण का बोध हो जाता है। जिसके परिणाम स्वरूप उसमें सत्याभीप्सा जागृत हो जाती है। यही सत्याभीप्सा उस सत्य या यथार्थता के निकट पहुंचाती है और जितने अंश में वह यथार्थता के निकट पहुंचता है उतने ही अंश में उसका ज्ञान और चारित्र शुद्ध होता जाता है। ज्ञान और चारित्र की शुद्धता से पुनः राग और द्वेष में क्रमशः कमी होती है और उसके फलस्वरूप उसके दृष्टिकोण में और अधिक यथार्थता आ जाती है। इस प्रकार क्रमशः व्यक्ति स्वतः ही साधना की चरम स्थिति में पहुंच जाता है। आवश्यकनियुक्ति में कहा है कि जल जैसे-जैसे स्वच्छ होता जाता है, त्यों-त्यों द्रष्टा उसमें प्रतिबिम्बित रूपों को स्पष्टतया देखने लगता है। उसी प्रकार अन्तर में ज्यों-ज्यों मलिनता समाप्त होती है, तत्त्व-रुचि जाग्रत होती है, त्यों-त्यों तत्त्वज्ञान प्राप्त होता जाता है। इसे जैन परिभाषा में प्रत्येक बुद्ध (स्वतः ही यथार्थता को जानने वाले) का साधना-मार्ग कहते हैं। लेकिन प्रत्येक सामान्य साधक यथार्थ दृष्टिकोण को
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