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प्रसन्न
इन चौदह महास्वप्न के समूचित फल यह है कि वह चौदह राजलोक के अग्रभाग पर स्थित सिद्धशिला के ऊपर निवास करने वाला होगा । रानी अपने स्वप्नदर्शन के फल सुनकर अत्यन्त हुई और बार-बार अपने स्वप्नों का का ही स्मरण करती हुई अपने स्थान पर चली आई। राजा ने स्वप्नपाठको को विपुल दान दक्षिणा देकर विदा किया ।
भगवान गर्भावस्था से ही विशिष्ठज्ञानीं थे। अर्थात् उन्हें मति श्रुति और अवधिज्ञान था । जब गर्भ का सातवां महीना बीत चुका था तब एक दिन भगवन ने सोचा- मेरे हलन चलन से माता को कष्ट होता है अतः उन्हों ने गर्भ में हिलना चलना बन्द कर दिय! |
अचानक गर्म का हिलना चलना बन्द होने से माता त्रिशला अमंगल की कल्पना से शोकसागर में डूब गई । उन्हें लगा कि कहीं गर्भ में बालक की मृत्यु तो नहीं हो गई ? धीरे-धीरे यह खबर सारे राज्य कुटुम्ब में फैल गई । सभी यह बात सुन सुनकर दुःखी होने लगे । भगवान ने यह सर्व अपने ज्ञान से देखा और सांचा माता-पिता की सन्तान विषयक ममता बड़ी प्रबल होती है। मैंने तो मां के सुख के लिए ही हलन चलन बन्द कर दिया था। परन्तु उसका परि णाम विपरीत हीं हुआ । माता-पिता के इस स्नेह भाव को देखकर भगवान ने अंग संचालन किया और साथ में यह प्रतिज्ञा की कि जब तक माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक मैं प्रवश्या को ग्रहण नहीं करूँगा ।
जब गर्भस्त बालक का हलन चलन हुआ तो त्रिशला देवी को अपार हर्ष हुआ । रानी त्रिशलाको हर्षित देखकर सारा राज भवन आनन्द से नाच उठा और खूब उत्सव मनाने लगा ।
गर्भ के प्रभाव से सिद्धार्थ राजा की ऋद्धि यश प्रभाव और प्रतिष्ठा में वृद्धि होने लगी। गर्भ के समय त्रिशलां के मन में जो प्रशस्त इच्छायें उत्पन्न होती थी महाराज उसे पूरी कर देते थे । इस प्रकार गर्भ का काल सुख पूर्वक बीता ।
भर
चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी के दिन नौ मास और साढे सात रात्रि सम्पूर्ण होने पर त्रिशला माता ने हस्तोत्तरा नक्ष में सुवर्ण जैसी कान्तिवाले एवं सिंह लक्षण वाले पुत्र रत्न को जन्म दिया । जिस प्रकार देवों की उपपात शय्या में देव का जन्म होता है उसी प्रकार रुधिरादि से वर्जित, कर्मभूमि के महामानव २४ वें तीर्थङ्कर भगवान का जन्म हुआ । दिशाएँ प्रफुल्लीत हुई जनसमुदाय में स्वभाव से ही आनन्द का वातावरण निर्मित हो गया। तीनों लोक में प्रकाश फैल गया । नारक के जीवों को क्षण के लिये अपूर्व सुख की प्राप्ति हुई । आकाश देव दुंदुभियों से गूंज उठा । मेघ सुगन्धित जलधारा वर साने लगा। मंद मंद सुगन्धित पवन रजकणों को हटाने लगा । इन्द्रों के आसन चलायमान हुए । अवधि ज्ञान से भगवान के जन्म को जानकर उनके हर्ष का पार नहीं रहा । वे आसन से नीचे उतरे और भगवान की दिशा में सात आठ कदम चलकर दाहिने घुटने को नीचा कर और बाये घुटने को खड़ाकर दोनों हाथ जोड़कर भगवान की स्तुति करने लगे । उसके बाद अपने अपने आज्ञाकारी देवों को भगवान के जन्मोत्सव में शरीक होने की 'सुघोषा' घंटा द्वारा सूचना दी। छप्पन दिग्कुमारिकाओं ने माता त्रिशला के पास आकर उनका सूतिकाकर्म किया और मंगलगान करती हुई माता का मनोरंजन करने लगी । सौधर्मेन्द्र पालक विमान में बैठकर भगवान के पास आया और भगवान को तथा माता को प्रणाम कर स्तुति करने लगा । स्तुति कर लेने के बाद बोला 'मैं सोधर्म स्वर्ग का इन्द्र हूँ और आप के का जन्मोत्सव करने के लिये यहां आया हूँ इतना कहकर और भगवान का एक वैक्रिय आकार बनाकर त्रिशला के पास रख दिया। इसके बाद पांच रूपधारी इन्द्र ने भगवान को अपने दोनों हाथों से उठा लिया। आकाश मार्ग से चलकर वे मेरुपर्वत के पाण्डुकवन में आये
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पुत्र
इन्द्र ने माता त्रिवला को निद्राधीन कर दिया
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