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गया । मध्याह्न का समय हुआ और नयसार तथा उसके साथी दोपहर के भोजन कि तैयारी करने लगे। ठीक उस समय वहाँ एक साधु समुदाय आया । साधु किसी एक सार्थ के साथ चल रहे थे। और सार्थ के आगे निकल जाने पर मार्ग भूलकर भटकते हुए दोपहर को उस प्रदेश में आये जहाँ नयसार की गाडियों का पडाव था । मुनियों को देखते ही नयसार का हृदय दयार्द्र हो गया । वह उठा और आदर पूर्वक श्रमणों को अपने पास बुलाकर निर्दोष आहार पानी से उनका आतिथ्य सत्तकार किया और साथ चलकर मार्ग बताया । मार्ग में चलते मुनियों ने नयसार को उपदेश दिया । नवसार पर मुनि के उपदेश का अच्छा असर पड गया। साधु को मार्ग बताकर नयसार वापस अपने पडाव पर लौट आया। मुनियों के उपदेश से नयसार ने सम्यक्त्व प्राप्त किया । यथाशक्तित्रत-प्रत्याख्यान करता हुआ और जिनमार्ग की प्रशंसा करता हुआ स्वर्गवासी हुआ । वह नयसार मरकर सौधर्म देवलोक में एक पल्योपम की आयुवाला देव बना ।
तृतीय और चतुर्थ भव
देवगति का आयुष्य पूर्ण कर नयसार का जीव तीसरे भव में चक्रवर्ती भरत कॉ पुत्र मरिचि नाम का राजकुमार बना । युवावस्था में आकर मरिचि ने भगवान श्री ऋषभदेव के पास दीक्षा ग्रहण की । कालान्तर में वह श्रमण मार्ग से च्युत होकर त्रिडण्डी संन्यासी बन गया । किन्तु उसकी श्रद्धा जिनमार्ग पर अटूट थी । वह समवशरण के बाहर रहकर सैकडों व्यक्ति को प्रतिबोध देकर भगवान श्रीऋषभदेव के पास भेजता था । मरिचि के द्वारा प्रतिबोंधित व्यक्ति को भगवान प्रव्रजित करते थे इस प्रकार की धर्मदलाली से उसने महापुण्य का उपार्जन किया ।
एक समय भरत चक्रवति ने पुछा भगवान यहां कोई तीर्थंकर बनने वाला है क्या ? तब भगवान ऋषभदेव ने भरत चक्रवर्ती से कहा कि तेरा पुत्र मरिचि २४ वाँ तीर्थङ्कर श्री महावीर होगा । इतना नहीं, तीर्थङ्कर होने से पहले वह भारतवर्ष में त्रिपृष्ट नामका वासुदेव होगा । उसके बाद पश्चिम विदेह में प्रियमित्र नामका चक्रवर्ती होगा और अन्त में चरमतीर्थङ्कर श्रीमहावीर होगा ।
भगवान के मुख से मरिचि का भावी वृत्तान्त सुनकर भरत महाराजा मरिचि के पास गया और आदर पूर्वक वन्दना कर बोला-मरिचि, मैं तुम्हारे इस परिव्राजकत्व को वन्दन नहीं कर रहा हूँ किन्तु तुम अन्तिम तीर्थकर होने वाले हो यह जानकर तुम्हें बन्दना करता हूँ। तुम इसी भारतवर्ष में त्रिपृष्ठ नामके वासुदेव, महाविदेह में प्रियमित्र नाम के चक्रवर्ती और फिर वर्द्धमान नामक २४ वें तीर्थकर होंगे ।
भरत चक्रवर्ती की बात सुनकर मरिचि को बडी प्रसन्नता हुई । वह त्रिदण्डी खूब उछलता हुआ बोला अहो ! मैं वासुदेव चक्रवर्ती और तीर्थकर होउंगा । बस मेरे लिए इतना ही वहुत है । ___मैं वासुदेवों में पहला, पिता चक्रवर्तियों में पहले, और दादा तीर्थंकरों में पहले अहो ! मेराकुल कैसा श्रेष्ठ है ! इस प्रकार कुलाभिमान से मरिचि ने नीच गोत्र का बन्धन किया । चौरासी लाख पूर्व का आयु पूर्ण कर मरिचि स्वर्गगामी हुआ। और मरकर ब्रह्म देवलोक में देव बना ।
पांचवा और छटा भवः
ब्रह्मदेवलोक में दस सागरोपम का आयुष्य पूर्णकर नयसार का जीव कोल्लाकसन्निवेश में कोशिक नामक ब्राह्मण हुवा । यहाँ उसने सांख्य प्रव्रज्या ग्रहण की । यहाँ भी लंबेसमय तक सांख्य मत के अनुसार प्रव्रज्या और तपकर के ८४ लाख पूर्व की आयु भोगकर सोधर्म देवलोक में देवरूप से उत्पन्न हुआ ।
सातवां और आठवां भवःदेवलोक से चवकर नयसार के जीव ने अनेक छोटे बडे भव किये । सातवें मुख्य भव में नयसार
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