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कर धरणेन्द्रदेव ने भगवान पर फन फैला दिये धरणेन्द्र की देवियां प्रभु के सन्मुख आ वंदन कर अपनी भक्ति प्रदर्शित करने लगी ।
धरणेन्द्रदेव मेघमाली से कहने लगा- अरे हुए अब तू अपनी यह उपद्रवं लीला बन्द कर अगर तूं अपनी इस प्रकार की प्रवृत्ति चालू रखेगा तो उसका तेरे लिये भयंकर परिणाम होगा । धरणेन्द्र के मुख से यह बात सुनकर मेघमाली चौंका। वह पबराया हुआ नीचा उतरा, अपने अपराध की क्षमा मांगता हुआ भगवान के चरणों में गिरा । भगवान तो समभावी थे। उन्हें न क्रोध ही था और न राग । वे तो अपने ध्यान में ही लीन थे । भगवान को उसने उपद्रव रहित कर दिया अत्यंत नम्रभाव से भगवान की भक्ति कर वह अपने स्थान पर चला गया ।
दीक्षा ग्रहण करने के चौरासी दिन के बाद भगवान विचरण करते हुए बनारस के आश्रमपद नामक चतुर्थी के दिन विशाखा
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उत्पन्न हुआ । इन्द्रादि
। महाराज अश्वसेन के
उद्यान में पधारे । वहाँ धातकी वृक्ष के नीचे ध्यान करने लगे । चैत्र कृष्णा नक्षत्र में ध्यान की परमोच्च स्थिति में भगवान को केवलज्ञान और केवल दर्शन देवों ने भगवान का केवलज्ञान महोत्सव किया और समवशरण की रचना की साथ उनके प्रजाजन भी भगवान की देशना सुनने के लिए समवशरण में आये । भगवान ने उपदेश दिया भगवान का उपदेश श्रवण कर अपने छोटे पुत्र हस्तिसेन को राज्य देकर अश्वसेन राजा ने दीक्षा ग्रहण की । माता वामा देवी एवं महारानी प्रभावती ने भी भगवान के समीप दीक्षा ग्रहण की । अन्य भी अनेकों ने दीक्षा ली ।
भगवान के शासन में पार्श्व नामक शासन देव और पद्मावती नामकी शासन देवी हुई । भगवान के परिवार में शुभदत्त, आर्यघोष, वशिष्ठ, ब्रह्मचारी, सोम, श्रीधर, वीरभद्र और यशस्वी ये दस गणधर थे । १६००० साधु, ३८००० साध्वियां २५ चौदह पूर्वधर, एक हजार चार सौ अवधी११०० सौ वैक्रियलब्धिधारी ६०० वादी एक लाख भाविकाएँ थी ।
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ज्ञानी, ७५० मनः पर्ययज्ञानी १००० केवली चौसठ हजार धावक एवं तीन लाख ७० हजार अपना निर्वाण काल समीप जानकर भगवान के साथ अनशन ग्रहण किया । श्रावण शुक्ला ८ निर्वाण प्राप्त किया । भगवान की उंचाई नव हाथ थी ।
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समेतशिखर पर पधारे । वहाँ उन्हों ने तेंतीस मुनियों के दिन विशाखा नक्षत्र में एकमास का अनशन कर
भगवान की कुल आयु १०० वर्ष की थी । उसमें तीस वर्ष गृहस्थ पर्याय में एवं ७० वर्ष साधु पर्याय में व्यतीत किये। श्रीनेमिनाथ भगवान के निर्वाण के बाद ८३ हजार सात सौ पचास वर्ष बीतने पर भगवान श्रीपार्श्वनाथ का निर्वाण हुआ ।
भगवान पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म का उपदेश दिया
(१) प्राणातिपात विरमण (२) मृषावाद विरमण (३) अदत्तादान विरमण ( 8 ) परिग्रह विरमण व्रत जैन शास्त्रों में भगवान महावीर के निर्वाण से २५० वर्ष पूर्व भगवान पार्श्वनाथ का निर्वाण बतलाया गया हैं ।
भगवान श्रीमहावीर और उनके
पूर्वभव प्रथम और द्वितीय भवः
जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में महावप्र नामका विजय था। उस विजय में जयन्ती नाम की नगरी थी। वहां शत्रुमर्दन नाम का राजा राज्य करता था । उसके राज्य में पृथ्वीप्रतिष्ठान नाम के गाँव में नसार नाम का ग्रामाधिकारी रहता था । राजा अपने लिए एक सुन्दर महल बनवाना चाहता था । उसके लिये उसे उच्चकोटि के काष्ठ की आवश्यकता पडी । उसने नयसार को जंगल में से काष्ठ लाने की आज्ञा दी । राजा की आज्ञा मिलने पर नगसार अपने सेवकों के साथ गाडियाँ लेकर जंगल में
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