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________________ ७६ का जीव थुना नगरी में पुष्यमित्र नामक ब्राह्मण हुआ । यहां भी युवावस्था में उन्होंने सांख्यं प्रव्रज्या ग्रहण की । लम्बे समय तक तपश्चर्या कर ७२ लाख पूर्व की पूर्णायु प्राप्त कर मरे और सौधर्म देवलोक में देवबने । नौवां और दसवां भवः देवलोक की आयु पूर्णकर नयसार का जीव चैत्यनामक सन्निवेश में अग्निधोत नामक ब्राह्मण हुआ । अग्निधोत ने सांख्य प्रव्रज्या ग्रहण की। दीर्घ तपश्चर्यां की । चौसठ लाख पूर्व की पूर्णायु प्राप्त कर मरा और ईशान देवलोक में देव बना । ग्यारहवां और बारहवां भवः - देवलोक का आयुष्य पूर्णकर नयसार का जीव मन्दिर सन्निवेश नाम के गांव में अभिभूति नामका ब्राह्मण हुआ। वहां भी परिव्राजक दीक्षा ग्रहण की । छप्पन लाख पूर्व की आयु प्राप्त कर अन्त में मरा और सनत्कुमार देवलोक में देव बना । तेरहवां और चौदहवांभवः सनत्कुमार देवलोक से च्युत होकर नयसार का जीव श्वेताम्बिका नगरी में भारद्वाज नामक ब्राह्मण हुआ । भारद्वाज ने युवावस्था में परिव्राजक प्रव्रज्या ग्रहण की । लम्बे समय तक परिव्राजक दीक्षा पालकर चवालीस लाख पूर्व वर्ष की आयु पूर्णकर मरा और माहेन्द्रकल्प में देव बना । माहेन्द्रकल्प के बाद नयसार ने छोटे बडे अनेक भव किये । पन्द्रहवां और सोलहवां भवः - अनेक भव परिभ्रमण करते हुए उस नयसार के जीव ने राजगृह नामक नगर में एक ब्राह्मण के घर जन्म लिया । यहाँ उसका नाम स्थावर रखा । पूर्वभव के संस्कार बरा यहां भी उसने परिव्राजक दीक्षा ग्रहण की । खूब तप किया और अन्त में मरकर ब्रह्मदेवलोक में देवत्व प्राप्त किया । सत्रहवां और अठारहवां भवः - ब्रह्मदेवलोक का आयुपूर्णकर नयसार का जीव. राजगृह नगर में विश्वनन्दी राजा के भाइ बिशाखभूति का पुत्र विश्वभूति नामक राजकुमार हुआ । राजा विश्वनन्दी का विशाखानन्दी नामका पुत्र था । विशाखानन्दी के व्यवहार से दुखी होकर विश्वभूति ने आचार्य आर्यसंभूति के पास दीक्षा धारण की । कठोरतप किया । तपश्चर्या के प्रभाव से विश्वभूति मुनिको अनेक लब्धियां प्राप्त हुई । एक बार राजकुमार विश्वनन्दी ने विश्वभूति का अपमान किया अपमान का बदला लेने के लिये विश्वभूति मुनि ने निदानपूर्वक अन्तिम अनशन किया । एक कोड बर्ष की आयु भोगकर विश्वभूति मुनि स्वर्गगामी बने । मृत्यु के पश्चात् महाशुक्र नामक विमान में मिहर्द्धिक देव बने । उन्नीस, बीस, इक्कीस और बाइसवां भवः - महाशुक्र देवलोक से च्युत होकर नयसार का जीव अपने निदान के फल स्वरूप पोतन पुर के राजा प्रजापति की रानी मृगावती के उदर में जन्म लिया । महारानी मृगावती ने सात महास्वप्न देखे । गर्भकाल के पूर्णहोने पर महारानी ने तीन पसलींवाले एक शक्तिशाली पुत्र को जन्म दिया । तीन पसली को देखकर महाराजा प्रजापति ने बालक का नाम त्रिपृष्ठ रक्खा । इनके बड़े भ्राता का नाम अचल था । त्रिपृष्ठ और अचल युवा हुए । युवावस्था में एक बार त्रिपृष्ठकुमार ने एक बलिष्ट तीन खण्ड के स्वामी प्रतिवासुदेव अश्वग्रीव को युद्ध सिंह को अपने दोनों हाथों में पकडकर चीर डाला मार कर वासुदेव पद प्राप्त किजा । अचल बलदेव बने । वासुदेव के ऐश्वर्य का उपभोग करते हुए इन्होंने अनेक पाप उपार्जित किये । ८४ लाख वर्ष की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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