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________________ आपने घर-द्वार छोडकर प्रव्रज्या ग्रहण की है । आप और भगवान दोनों एक कुल के हैं । इस प्रकार श्रेष्ठ कुल में जन्म लेकर वमन की हुई वस्तु को फिर ग्रहण करना श्रेष्ठ मानव का कार्य नही हो सकता. । हे महामुने ! अपने इस दुष्कृत्य का पश्चाताप कर पुनः संयम में दृढ होइये । राजीमती के उक्त प्रभावपूर्ण वचन सुनकर रथनिमि का सिर लज्जा से झुक गया । उसे अपने कृत्य पर पश्चाताप होने लगा । अपने अपराध के लिए राजीमतो से बार बार क्षमा मांगने लगे। रथनेमि ने भविष्य के लिए संयम में दृढ रहने की प्रतिज्ञा को । राजीमती साध्वी ने उन्हें कई प्रकार के हित वचन सुनाकर संयम में दृढ किया । जैसे मदोन्मत्त हाथी अंकुश की मार से वश में हो जाता है, उसी प्रकार राजीमती के सुभाषित वचनों से कामोन्मत्त रथनेमि पुनः ठिकाने आ गये । वे फिर संयम में स्थित हो गये । बार बार चोट खाये रथनेमि ने अपनी समस्त शक्ति कामवासना के उन्मूलन में लगा दी । उन्होंने उग्रतर तपस्या करके धातीकर्मों को नष्ट किया और केवलज्ञान ओर केवल दर्शन प्राप्त करके मोक्ष की राह ली । रथनेमि को संयम में स्थिर कर राजीमती गुफा से निकली और अपने साध्वी समूह में आ मिली । सब के साथ वह पहाड पर चढी और भगवान श्रीअरिष्टनेमि के दर्शन किये । राजीमती की चीर अभिलाषा पूर्ण हुई । आनन्द से उसका हृदय गद्गद् हो उठा । उसने भगवान का उपदेश सुना और अपनी आत्मा को सफल बनाया । भगवान के उपदेशानुसार कठोर तप और संयम की आराधना करने लगी । फलस्वरूप उसके सभी कर्म नष्ट हो गये । भगवान मोक्ष पधारने से चौदह दिन पहले वहसिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गई । . भगवान श्रीअरिष्टनेमि ने अनेक स्थलों पर विहार कर यादव कुमारों को राजाओं को एवं श्रेष्ठियों को प्रतिबोध दिया । भगवान के उपदेश से अठारह हजार साधु हुए, वरदत्त आदि ग्यारह गणधर हुए। ४० हजार साध्वियां, ४०० चारसौ चौदहपूर्वधर, १५०० पंदरसौ अवधिज्ञानी, १५०० पदरसौ वैक्रियलब्धिवाले. १५०० पंदरसौ केवली १००० एक हजार मनः पर्ययज्ञानी, ८०० आठसौ वादी, १ लाख ६९ हजार श्रावक एवं ३ तीन लाख ३९ हजार श्राविकाएँ हुई । . विहार करते हुए भगवान रेवतगिरि पर पधारे । वहां अपना निर्वाणकाल समीप जानकर ५३६ साधुओं के साथ अनशन ग्रहण किया । एक मास के अन्त में आषाढ शुक्ला अष्टमी के दिन चित्रा नक्षत्र में ५३६ मुनियों के साथ भगवान निर्वाण पधारे । भगवान श्रीअरिष्टनेमि कुमारावस्था में तीन सौ वर्ष एवं साधु पर्या में ७०० वर्ष व्यतीत किये । भगवान की कुल आयु १००० एक हजार वर्ष की थी । शरीर की उंचाई १० धनुष प्रमाण थी। भगवान श्रीनमिनाथ के निर्वाण के बाद पांच लाख वर्ष के बीतने पर भगवान अरिष्टनेमि का निर्वाण हुआ। २३ भगवान श्रीपार्श्वनाथ (पूर्वभव) जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में पुराणपुर नामका नगर था । उसमें बज्रबाहू नामका राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम सुदर्शना था । वज्रनाभ मुनि का जीव देव आयु पूरी कर सुदर्शना की कुक्षि में पुत्र रूप से जन्मा । उसका नाम 'सुवर्णबाहु' रखा गया । सुवर्णबाहु युवा हुए । उनका योग्य राजकुमारी के साथ विवाह हुआ। उनके पिता वज्रवाहु ने उन्हें राज्यगद्दी पर बिठला कर दीक्षा ले ली । . एक दिन सुवर्णबाहु घोडे पर सवार होकर घूमने निकले । घोडा बेकाबू हो गया और उन्हें एक भयानक जंगल में ले गया वहां एक सुन्दर सरोव के किनारे गालवऋपि का आश्रम था । राजा विश्राम लेने के लिये आश्रम में गया । वहां पद्मा नाम को राजकुमारी तापस कन्याओं के साथ रहतो थी । राजा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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