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________________ ७१ की दृष्टि उस पर पडी । वह उसके सौर्य को देखकर मुग्ध हो गया । राजा ने मालवऋषि से पद्मा की मांग की। मालवऋषि ने बड़े प्रेम से पत्रादेवी का विवाह से कर दिया। कुछ समय तक वहां बाहु रहकर सुवर्णबाहु अपनी राजधानी पुराणपुर लौट आया । राज्य करते हुए सुवर्णबाहु की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। बाद में क्रमश: अन्य तेरह रत्न भी उत्पन्न हो गये । रत्नों की सहायता से सुबाहु ने छह खण्ड पर विजय प्राप्त कर ली। वे चक्रवर्ती बनकर पृथ्वी पर एक छत्र राज्य करने लगे । एक बार जगन्नाथ तीर्थंकर भगवान का पुराणपुर में आगमन हुआ । सुवर्णबाहु परिवार सहित उनके दर्शन के लिए गया । वहां उपदेश सुनकर उन्हें जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया। अपने पूर्वभव को देख उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया । उन्होंने अपने पुत्र को राज्यभार देकर जगन्नाथ भगवान के समीप दीक्षा ग्रहण कर ली । वहाँ कठोर तप करके उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया । कमठ का जीव नरक से निकल कर क्षीणवना वन में सिंह रूप से उत्पन्न हुआ । वह भ्रमण कर रहा था दो दिन से उसे आहार नहीं भिन्टा था। उधर सुवर्णाहु मिला था । उधर सुवर्णबाहु मुनि उसी वन में विहार कर रहे थे। मुनि को सामने आता देख वह उन पर पड़ा। मुनि ने उसी समय संभाग कर लिया। पूर्व जन्म के वैर के कारण सिंहने उन्हें मार डाला । समभाव से वा मुनि ने देह को छोटा मरकर वे महाप्रभ नामके विमान में महर्द्धिक देव बने । कमठ का जीव सिंह मरकर बौधी नरक में पैदा हुआ । भगवान श्री पार्श्वनाथ का जन्म --- इसी जम्बूद्वीप के भरनक्षेत्र में काशीदेश में वाराणसी नामको नगरी थी। उस नगर में अश्वसेन नाम के शूरवीर राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम वामा देवी था। वह रूप लावण्य एवं सुलक्षणों से सुशोभित थी । उस समय महाप्रभ विमान में सुवर्णबाहु का जीव अपनी २२ सागरोपम की स्थिति पूर्ण कर चुका था। वह वहां से चैत्रकृष्ण चतुर्थी के दिन विपाखा नक्षत्र में चक्कर महारानी बामा देवी की कुक्षिमें उत्पन्न हुआ । महारानी ने चौदह महास्वप्न देखे | गर्भकाल की समाप्ति के बाद पौष कृष्णा दशमी के दिन अनुराधा नक्षत्र में नीलवर्णी सर्प लक्षणवाले एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । इन्द्रादि देवों ने आकर सुमेरु पर्वत पर जन्मोत्सव किया । भगवान गर्भ में थे उस समय एक भयंकर सर्प फूत्कार करता हुआ माता की बगल से निकल गया था इसलिए बालक का नाम पार्श्वकुमार रखा गया पार्श्वकुमार युवा हुए। वे अब अपने पिता के राज्यकार्य में हाथ बटाने लगे । एक बार एक दूत राजा अश्वसेन के दरबार में आकर बोला - नरदेव ! मैं कुशलस्थल नगर के राजा नरवर्मा का दूत हूँ महाराज नरवर्मा अपने पुत्र प्रसेनजित को राज्य सौंपकर दीक्षित हो गये हैं। राजा प्रसेनजित की पुत्री का नाम प्रभावती है। वह अत्यन्त रूपवती है। एक बार प्रभावती ने राजकुमार पार्श्वनाथ की प्रशंसा सुनी और उसने अपना जीवन उनके चरणों में समर्पण करने का संकल्प कर लिया वह रात दिन उन्हीं के ध्यान में लीन हो एक त्यागिनी की तरह जीवन बिताने लगी । राजा प्रसेनजित को जब ये समाचार मिले तो उसने प्रभावती को स्वयंवरा की तरह बनारस भेजने का संकल्प किया । कलिंगदेश के यवनराज को जब इस वात का पता चला तो वह प्रभावती को प्राप्त करने के लिए सेना सहित कुशस्थल पर चढ आया । उसने अपनी विशाल सेना से सारे नगर को घेर लिया । महाराज प्रसेनजित इस कार्य में आपकी सहायता चाहते हैं। अब आप जैसा उचित समझे वैसा करें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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