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लगे । भगवान की वाणी श्रवण कर वरदत्त आदिने दीक्षा ग्रहण कर गणधर पद प्राप्त किया । भगवान की देशना समाप्त होने पर वरदत्त गणधर ने उपदेश दिया। भगवान के उपदेश से अनेक राजाओं तथा यादवकुमारों ने श्रावक व्रत एवं साधुव्रत ग्रहण किये । भगवान के शासन में गोमेधयक्ष एवं अम्बिकादेवी शासन रक्षक देव देवी के रूप में प्रकट हुए ।
भगवान श्रीअरिष्टनेमि की दीक्षा का समाचार राजीमती को भी मालूम पड़ा । समाचार सुन कर वह विचार में पड़ गई कि अब मुझे क्या करना चाहिये। इस प्रकार विचार करते-करते उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया उसे मालूम पड़ा कि मेरा और भगवान का प्रेम सम्बन्ध पिछले आठभवों से चला आ रहा है । ईस नवें भव में भगवान का संघम अंगीकार करने का निश्चय पहले से था । मुझे प्रतिबोध देने की इच्छा से ही उन्होंने ने विवाह का आयोजन स्वीकार कर लिया था । अब मुझे शीघ्र संयम अंगीकार करके उनका अनुशरण करना चाहिए ।
महासती श्रीराजीमती ने माता पिता को पूछकर सातसौ सखियों के साथ दीक्षा ग्रहण की । महाराज उग्रसेन तथा श्रीकृष्ण ने उसका दीक्षा महोत्सव किया । राजकुमारी श्रीराजीमती साध्वी बन गई । श्रीकृष्ण तथा सभी यादवों ने उसे वंदना की । अपनी शिष्याओं सहित राजीमती तप-संयम की आराधना करने लगी । थोडे समय में ही वह बहुश्रुत हो गई ।
एक बार राजीमती भगवान श्रीअरिष्टनेमि के दर्शन के लिए अपनी शिष्याओं के साथ गिरनार पर्वत की ओर जा रही थी। मार्ग में जोर से आंधी चलने लगी । साथ में पानी भी बरसने लगा । कालीघटाओं के कारण अंधेरा छा गया । साध्वी राजीमती उस बावण्डर में पडकर अकेली रह गई । सभी साध्वियों का साथ छट गया । वर्षा के कारण उसके सारे कपडे भीग गये । राजीमती को पास ही में एक गुफा दिखाई पडी । कपडे सुखाने के विचार से वह उसी में चली गई । उसने एकान्त स्थान देखकर एक एक करके समस्त वस्त्र उतार दिये और सुखाने के लिए फैला दिये ।
रथनेमि उसी गुफा के एक कोने में ध्यान कर रहे थे । अन्धेरा होने से राजीमती को वे दिखाई नहीं दिये किन्तु रथनेमि की दृष्टि राजीमती के शरीर पर पडी । उनके हृदय में कामवासना जागृत हो गई । एकान्तस्थान, वर्षा का समय, सामने वस्त्र रहित सुन्दरी, ऐसी अवस्था में रथनेमि अपने स्वरूप को न सम्भाल सके । वे राजीमती के निकट गये और कहने लगे-सुन्दरी ! मैं तुम्हारा देवर रथनेमि हूँ । अचानक एक पुरुष को अपने सामने देख वह अचका गई । उसी समय उसने अपने अंगों को ढंक लिया ।
राजीमती को सम्बोधित कर रथनेमि कहने लगे-प्रिये ! डरो मत ! भय और लज्जा को छोड दो ! आओ हम तुम मनुष्योंचित सुख भोगे । यह स्थान एकान्त है, कोई देखनेवाला नहीं है । दुर्लभ मानवदेह को पाकर सुख से वंचित रहना उचित नहीं है।
राजीमती ने कहा-कमार रथनेमि ! आप अन्धक वृष्णि के पौत्र हैं, महाराज समुद्रविजय के पुत्र एवं तीर्थङ्कर भगवान श्रीअरिष्टनेमि के भाई हैं । त्यागी हुई वस्तु का फिर भोगना लज्जा जनक है ।
पक्खंदे जलिय जोई, धूमकेउ दूरासयं ।
नेच्छंति वंतयं भोतुं कुले जाया अंगधणे ॥ "अगन्ध कुल में पैदा हुए सर्प जाज्वल्यमान प्रचण्ड अग्नि में गिरकर भस्म हो जाते हैं । किन्तु उगले हुए विष को कभी पीना पसन्द नहीं करते ।" आप तो मनुष्य हो, महापुरुषों के कुल में आपका जन्म हुआ है फिर यह दुर्भावना कहां से आई ?
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