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आगमन से उग्रसेन को आनन्द की सीमा न रही। उन्होंने बडी श्रद्धा और भक्ति से श्रीकृष्ण का राजोचित सन्मान किया । महाराज उग्रसेन से कुशल क्षेम सम्बन्धी वार्ताविनिमय के बाद श्रीकृष्ण बोले- महाराज ! मैं आपकी गुणवती पुत्री राजीमती का विवाह यदुकुलनन्दन श्रीअरिष्टनेमि से करना चाहता हूँ । आपकी कन्या की याचना करने के लिए ही मैं आपके द्वार पर आया हूँ । आप मुझे निराश तो न करेंगे !
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राजा उग्रसेन श्रीअरिष्टनेमि के गुणों की प्रशंसा तो सुन चुके हि थे । हृदय में उमडते हुए प्रसन्नता के समुद्र को रोकते हुए उन्होंने कहा - " आपको निराश किया ही कैसे जा सकता है । जब कि हम स्वयं राजीमती के लिए ऐसे ही उपयुक्त वर की खोज में थे 1 आप सपरिवार यहां पधारे । आप शीघ्र ही विवाव की तैयारियां आरंभ कर दें । श्रावणशुक्ला पष्ठी के शुभ मूहूर्त में कुमार का विवाह होगा ।" श्रीकृष्ण उग्रसेन से स्वीकृति प्राप्त कर द्वारावती लौट आये ।
श्रीकृष्ण के लौटते ही महाराज समुद्रविजय ने विवाह की तैयारियां प्रारंभ कर दीं। सभी यादवों को आमंत्रण भेजे गये । द्वारिका नगरी सजायी गई । जगह जगह बाजे बजने लगे । मंगलगीत गाये जाने लगे । छप्पनकोटी यादवों के स्वामी श्रीकृष्ण अपने लघु म्राता श्रीनेमिकुमार की विशाल बारात लेकर विवाह करने के लिए चल पडे । अश्व, हाथी, रथ और शिविकाओं से भरी हुई यह बारात जहां ठहरतीं वहां एक छोटी सी नगरी जैसी बन जाती थी । उसकी सजावट और शोभा को देखने के लिए दूर दूर से लोग पंक्तियों में चले आ रहे थे । आकाश में रहे हुए देवतागण पुष्प बरसाकर भगवान श्रीअरिष्टनेमि कुमार का स्वागत कर रहे थे ।
इधर महाराजा उग्रसेन यादवों की विशाल बारात का स्वागत करने के लिए आतुर थे । वे चाहते थे कि श्री अरिष्टनेमि की इस बारात का स्वागत ऐसा हो कि द्वारिका के महारथी भी एक बार दातों तले अंगुली दबाने लगे ।
थे ।
राजद्वार पर नगारे बज रहे थे और शहनाईयों के अमृतस्वर तो समाप्त ही नहीं होते महारांनी धारिणी भी अन्तःपुर में तैयारियां कर रही थी । राजकुल की नववधुओं के उत्साह का कोई पार न था । उनके उत्साह सूचक नूपुरों की आवाजों से सारा महल गूंज रहा था । उनके हास्य से सांरा महल हंस पडता था । लग्नवेला समीप आ रही थी । राजमहल के प्रांगन में तैयारिया हो रही थी । पुरोहित आ गये थे । वेदिका पर कुंकुम और अक्षत रख दिये गये थे । मण्डप के बाहर नवयुवतियां मंगल कलश लिये वर राजा का स्वागत करने के लिए खडी थीं ।
यादवकुल- शिरोमणि श्रामिकुमार का रूप अद्भूत था । सिर पर मुकुट, भुजाओं में भुजबंध, कानों में कुण्डल अजानुबाहु में सुन्दर चाप । वे कामदेव के दूसरे अवतार लगते थे। वे अकेले ही सारथी के साथ रथ पर बैठे हुए थे । महल के निकट पहुंचते ही शहनाईयों और गीतों की आवाज को भेदते हुए पशुओं के चीत्कार सुनाई दिये । श्रीअरिष्टनेमि के कानों में यह चीत्कार शूल की भांति चुभे । कुछ क्ष के बाद शहनाई के बजाय केवल पशुओं की चीत्कार ही चीत्कार सुनाई देने लगी । वे सिहर उठे 1 हृदय धडकने लगा । उन्होंने सारथी से पूछा के यह शोकपूर्ण हृदय को हिलादेने वाला आक्रन्दन क्यों और कहाँ से आ रहा है ?
सामने बाडों में बन्ध पशुओं की ओर इशारा करके सारथी बोला- स्वामी ! ये पशु पक्षी बारात में आए हुए मांस - भोजी अतिथियों की भोजन सामग्री हैं अपना स्थान छूट जाने से, स्वाधीनता लूट जाने से और अपने प्रिय साथियों का साथ छूट जाने से अपने प्रिय प्राणों के नाश के भय से व्याकुल एवं भयभीत हो रहे हैं । अज्ञात पीडा से छटपटा रहे हैं अश्रुतपूर्व वाद्यध्वनियों से एवं मृत्यु की आशंका से उनका हृदय विह्वल हो रहा है
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