________________
६७
सारथी के मुख से यह सुनकर उनकी आत्मा कांप उठी । उन्होंने इस अनर्थ को टालने का निश्चय किया । करुणा के सागर भगवान इस महान हिंसा के भागीदार कैसे बन सकते हैं ! वे मनही मन सोचने लगे - इस समय मेरे ही कारण इन पशुओं की बलि होगी । मैं इन पशुओं के शव पर सुख का बडा महल खड़ा नहीं करूंगा उसी क्षण नेमकुमार ने सारथी से कहा सारथी ! जाओ ! वाडे के द्वार खोल कर इन पशुओं को मुक्त कर दो। मैं इन पशुओं की बलिवेदी पर सेहरा नहीं बाँध सकता । सारथी ने श्रीनेमकुमार के आदेश से बाडे का द्वार खोल दिया ! द्वार खुलते हि उन्मुक्त मन से प्रसन्नता की किलकारियां करते हुए पशु पक्षी अपने-अपने निवास स्थान की ओर भागने लगे । पशुओं को उन्मुक्त मन से भागते देख श्रीअरिष्टनेमि अपार हर्ष का अनुभव करने लगे । साथी के इस कार्य पर प्रसन्न होकर श्रीनेमिकुमार अपने समस्त अमूल्य आभूषण सारथी को दे दिया । भगवान विना विवाह किये शौर्यपुर लौट आये ।
1
भगवान को वापस लौटता देख एक दूत दौडता हुआ लग्नमण्डप के पास पहुँचा । उसने महाराज उग्रसेन से कहा- स्वामी ! श्रीनेमिकुमार विवाह करने से इनकार करके आधे मार्ग से ही वापिस लौट आये । क्यों ! महाराज ने धडकते हुए हृदय से प्रश्न किया । सन्देश बाहक दूत ने कहा - महाराज । पाकशाला के पास में बन्धे हुए पशुओं की चीत्कारों ते उनके हृदय को भारी आघात पहुँचाया । वहाँ गये और सर्व पशुओं को वन्धन से मुक्त कर विना कुछ कहे सुने सारथी को रथ लौटाने का आदेश दिया मैं उस समय वहाँ उपस्थित था । वे कुछ न बोले किन्तु उनकी आखों में अद्भूत चमत्कार था । ऐसा लगता था मानो उन्होने सब कुछ पा लिया ।
चहल पहल रुक गई । महाराज उग्रसेन महारथी श्रीकृष्ण आदि सब के सब अपने अपने शीघ्र - गामी वाहन पर आरूढ होकर घटना स्थल पर पहुँचे । महारानी भी दो चार दासियों के साथ शिबिका में बैठकर रवाना होने की तैयारी करने लगी । शहनाई के स्वर शिथिल पड गये । राजकुमारी राजुल तो मूच्छित होकर जमीन पर गिर पड़ी । महारानी राजुल को धैर्य बंधा रही थी श्रावण के वादलों की तरह सबकी आंखों में आंसू बह रहे थे ।
समुद्रविजय, महारथी श्रीकृष्ण तथा महाराज उग्रसेन श्रीनेमिकुमार को समझाने आये किन्तु श्रीनेमिकुमार अपने निश्चय पर अटल थे । वे सांसारिक भोग विलासों को छोड़ने का निश्चय कर चुके थे । महाप्रभु श्रीनेमकुमार के दृढ वैराग्य व अटल तर्क के सामने वे सब निरुत्तर थे । अन्त में वे निराश होकर अपने-अपने स्थान में लौट आये । भगवान श्रीनेमिनाथ बारात छोड़ कर अपने नगर की ओर रवाना हुए ।
भगवान के जाते ही बरातियों की सारी उमंगे हवा हो गई। सभी के चेहरे पर उदासी छा गई । महाराजा उग्रसेन की दशा और भी विचित्र हो रही थी । उन्हें कुछ नहीं सूझ रहा था कि इस समय क्या करना चाहिए ?
राजीमती को जब चेतना आई तो उसका सारा दु:ख बाहर उमड आया । वह अपना सर्वस्व श्रीनेमिकुमार के चरणों में अर्पित कर चुकीं थी। उनके विमुख होने पर वह अपने को सुनीसी, निराधारसी एवं नाविक रहित नौका सी मानने लगी । उसकी आंखों में अविराम आंसू बह रहे हे थे मातापिता पुत्री इस दुःख को देख नहीं सके । उन्हों ने कहा- “ बेटी ! राजकुमार श्रीनेमि ने हमारी बात नही मानी । वह वापिस चला गया । हजारों युक्तियाँ का एकही उत्तर था और वह था उसका अवलोकन
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org