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________________ ६५ गये । निसर्ग की सर्वोत्तम वनश्री से सुशोभित रैवतगिरि पर यादवगण खुलकर क्रीडा करने लगे । रंग रस के रसिया श्रीकृष्ण वहां स्वयं मौजूद थे । और अपनी सहेलियों के साथ उनकी पटरानी सत्यभामा भी थी। ऐसा जान पडता था कि मानो रति के साथ कामदेव ने आज इस स्वभाव-सुन्दर गिरिराज को अपना क्रीडास्थल बनाया हो परंतु । युवक श्रीअरिष्टनेमि को इस रागरंग में कोई अभिरुचि नहीं थी। वे एकान्त में वृक्ष की शीतल छाया में बैठकर संसार को असारता का विचार करने लगे । __ सत्यभामा की दृष्टि एकान्त में बैठे हुए कुमार श्रीअरिष्टनेमि पर पडी । अच्छा अवसर देखकर वह भी अपनी सहेलियों के साथ उनके पास पहुँच गई वस्तुतः यह सारा आयोजन श्रीअरिष्टनेमि को लक्ष्य कर के ही किया गया था । अवसर पाकर सत्यभामा श्रीअरिष्टनेमि से कहने लगी देवरजी ! योग साधना का समय अभी दूर है भोग की साधना में सिद्धि प्राप्त करने के बाद योग की साधना सरल हो जावेगी । मुझे आपकी यह एकान्त प्रियता अच्छी नहीं लगती । आपके भातृवृन्द सृष्ठि सौंदर्य का रसपान कर रहे हैं और आप एकांत वृक्ष के नीचे बैठे बैठे आत्मा परमात्मा की बातें सोंच रहे हैं । आपकी इस उदासीनता के कारण हमारा सारा उत्सव रस रहित हो जाता हैं । आप भी आओ। और इस आमोद प्रमोद में समुचित भाग लो । जीवन की ऐसी घडियां बार-बार नहीं आतीं । मै जानती हूँ आपके अकेलेपन का कारण । आपको एक योग्य सहचरी की आवश्यकता है। क्या वह बात सच है न ? । कुमार श्रीअरिष्टनेमि चुपचाप सत्यभामा की यह बात सुन रहे थे। उन्होंने भाभी की इस मोहदशा पर मुस्करा दिया । वह सोचने लगे । “अनन्त काल तक भोग भोगने पर भी जिनसे तृप्ति नहीं हो सकती जो दुर्गति के कारण हैं और जिनसे आत्मा का अधःपतन होता है, उन भोगों के प्रति इतनी उत्सुकता क्यों है ? जिस देवदुर्लभ मानव देह से अनुत्तर और अव्याबाधसुख की प्राप्ति होती है उस मानवदेह को भोग की भट्टी में झोंक देना क्या विडम्बना नहीं है ? इस प्रकार संसार की विचित्रदशा पर कुमार श्रीअरिष्टनेमि को हंसी आ गई । सत्यभामा ने इस हँसी को विवाह का सूचक समझ लिया, यही नहीं, उसने कुमार की लग्न स्वीकृति की घोषणा भी कर दी। श्रीअरिष्टनेमि को विवाह के लिए राजी हुआ समझकर सारा यादव परिवार हर्ष से उन्मत्त हो गया । वसन्तोत्सव भी समाप्त हो गया। यादव गण अपने अपने परिवारों के साथ लौट आये । श्रीकृष्ण ने श्रीअरिष्टनेमि के द्वारा विवाह की स्वीकृति का वृत्तान्त समुद्रविजय तथा शिवादेवी से कहा उन्हें यह जान कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई । उन्होंने श्रीकृष्ण से फिर कहा-श्रीअरिष्टनेमि के लिए योग्य कन्या को खोजने का काम भी आप ही का है । इसे भी आप ही पूरा कीजिए । श्रीकृष्णने यह जिम्मेदारी अपने पर ले ली। भोजकवृष्णि के पुत्र महाराज उग्रसेन मिथिला में शासन करते थे । उनकी रानी का नाम धारिणी था । इनके एक पुत्र था जिनका नाम कंस था । अपराजित विमान से चवकर यशोमती का जीव धारिणी की कुभि में उत्पन्न हुआ । उसका नाम राजीमती रखा गया । राजीमती अत्यन्त सुशील सुन्दर और सर्वगुण सम्पन्न राजकन्या थी । उसकी कान्ति बीजली की तरह देदीप्यमान थी । वह शैशवकाल को पार कर युवा अवस्था को प्राप्त हुई तब माता पिता को योग्यवर की चिन्ता हुई । महाराज उग्रसेन राजीमती का विवाह श्रीअरिष्टनेमि कुमार से करना चाहते थे और स्वयं श्रीकृष्ण की भी यही इच्छा थी। कन्या की मांग करने के लिए श्रीकृष्ण स्वयं महाराज उग्रसेन के घर गये । श्रीकृष्ण वासुदेव के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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