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________________ श्रीकृष्ण अरिष्टनेमि के इस अतुलपराक्रम को देखकर विचार में पड़ गये । इस अतुलपराक्रमी के सामने श्रीकृष्ण को अपना भविष्य अंधकारमय दिखाई देने लगा । उन्हों ने अरिष्टनेमिको वास्तविक बल का पता लगाने का निश्चय किया अवसर देखकर श्रीकृष्ण श्रीअरिष्टनेमि से कहा-"भाई आज हम कुस्ती करें देखे कौन बली हैं ?" श्रीअरिष्टनेमि ने कहा-बन्धुवर । आप बड़े हैं इसलिये आप हमेशा ही बली हैं । श्रीकृष्ण ने कहा इसमें क्या हर्ज है ! थोडी देर खेल ही हो जायेगा । श्रीअरिष्टनेमि बोले-धूल में लोटने की मेरी इच्छा नहीं है क्रिन्तु मै बल परीक्षा का दूसरा उपाय बताता हूं । आप हाथ लम्बा कीजिए मै उसे झुका दूं । जो हाथ नहीं झुका सकेगा वही कम ताकत वाला माना जायेगा । श्रीअरिष्टनेमि के इस प्रस्ताव को श्री कृष्ण ने मानलिया और उसी क्षण उन्होंने अपना हाथ लम्बा कर दिया । अरिष्टनेमि ने उनका हाथ इस तरह झुका दिया जैसे कोई बेंत की पतली लकडी को झुका देता हो । फिर श्रीअरिष्टनेमि ने हाथ लम्बा किया परन्तु श्रीकृष्ण उसे नहीं झुका सके । श्रीकृष्ण ने अपना पूरा बल अजमा लिया पर भुजा ज्यों की त्यों अकडी रही । श्रीकृष्ण स्वयं उनकी भुजा पर लटक गये किन्तु वे श्रीअरिष्टनेमि की भुजा को तनिक भी नहीं झुका सके। श्रीकृष्णने अजेय बली भाई को स्नेहातिरेक में गले लगाया । वे भगवान श्रीअरिष्टनेमि के इस अपरिमेयबल को देखकर चिन्तित हो उठे । उनके मन में केई प्रकार की शंका-कुशंका होने लगी । वे अपने महल में आकर सोचने लगे-अगर श्रीअरिष्टनेमि इतना शक्तिशाली व्यक्ति है तो कहों सारे भरतखण्ड में अपना राज्य स्थापित करने की लालसा तो उसके हृदय में जागृत नही हो जायगी ? इतने में कुलदेवी ने आकर कहा-हे कृष्ण ! चिन्ता की बात नहीं है । श्रीअरिष्टनेमि बाबीसवें तीर्थङ्कर हैं । वे राज्यप्राप्ति के लिये नहीं किंतु जगत का उद्धार करने के लिए ही जन्मे हैं। यह कहकर देवी अन्तर्धान हो गई । देवी के मुख से बात सुनकर श्रीकृष्ण की चिन्ता कुछ कम दुई । फिर भी विचार आया-मैं सोलह हजार स्नित्रों के साथ भोग भोगता हूँ और श्रीअरिष्टनेमि अखण्ड ब्रह्मचारी है। इसी कारण उसका बल प्रबल है और वह अजेय है । यदि उसका विवाह हो जाय तो मेरा बल प्रयोग उस पर सफलता प्राप्त कर सकेगा। श्रीकृष्ण ने अरिष्टनेनि को विवाहित करने का निश्चय किया । इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने सत्यभामा को सहायक बनाया । उससे कहा-प्रिये ! तुम जानती हो कि श्रीअरिष्टनेमि युवा हो गया है फिर भी अविवाहित है । उसके माता-पिता बहू को देखने के लिए लालायित हैं । किन्तु वह सुनी अनसुनी कर देता है । समझता है कि विवाह गले का फन्दा है । दुनियां क्या समझती होगी कि तीन खण्ड के नाथ का भाई अविवाहित ही रह गया है । किसी ने एक लडकी भी उसे नहीं दी ! तुम चाहो तो उसे विवाह के लिए राजी कर सकते हो । सत्यभामा ने कहा-नाथ ! मैं इसके लिए अवश्य प्रयत्न करूँगी । वसन्तोत्सव के अवसर पर में हर प्रकार का प्रयत्न कर देवरजी को मनाने का प्रयत्न करूंगी। कुमार श्रीअरिष्टनेमि अलौकिक महापुरुष हैं। संसार में रहते हुए भी संसार से उचे उठे हुए हैं। राजप्रासाद में बास करते हुए भी राजसगुण से अलिप्त हैं । उनका लक्ष्य सुमेरु शिखर से भी अधिक उच्च और हिमालय के हिमशंगों से भी अधिक उज्ज्वल और शुभ्र हैं। उनके आध्यान्मिक चिन्तन और संसार के प्रति औदास्यभाव से माता पिता भी चिन्तित हो उठे । वे भी अपने पुत्र को विवाहित देखना चाहते थे । अब चारों ओर अरिष्टनेमि को विवाहित करने के लिए प्रयत्न होने लगे । वसन्तोत्सव समीप आ गया रैवतगिरि अपनी प्राकृतिक सुषमा के लिए अनुपम है । उसी पर वासुदेव श्रीकृष्ण ने वसन्तोत्सव मनाने का निश्चय किया । धूम धाम से तैयारियां शुरू हो गई । श्रीकृष्ण, बलदेव आदि सभी यादवगण अपनी अपनी प्रियतमाओं के साथ रैवत गरि पर पहुँचे और वहां क्रीडा में निमम हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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