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________________ राजा राज्य करता था। उसने नन्दनमुनि के पास दीक्षा ग्रहण की और तपस्या कर तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन किया । अन्त समय में संथारा कर वे प्राणत देवलोक में महर्द्धिक देवता हुए । वहां से चवकर सुरश्रेष्ठ मुनि का जीव राजगृह नगर के प्रतापी राजा सुमित्र की रानी पद्मावती की कक्षि में श्रावणर्णिमा के दिन श्रवण नक्षत्र के योग में उत्पन्न हआ। तीर्थकर को सचित करने वाले चौदह महास्वप्न महारानी ने देखे । रानी गर्भवती हुई ।। ___गर्भकाल के समाप्त होने पर जेष्ठ वदि अष्टमी के दिन श्रवण नक्षत्र में कूर्म लांछनवाले श्यामवर्णी पुत्र को महारानी ने जन्म दिया । इन्द्रादि देवों ने जन्मोत्सव किया । माता पिता ने बालक का नाम मुनिसुव्रत रखा । युवावस्था में भगवान मुनिसुव्रत का प्रभावती आदि श्रेष्ठ राजकुमारियों के साथ विवाह हुआ। भगवान की काया २० धनुष उंची थी । मुनिसुव्रत कुमार को प्रभावति रानी से एक पुत्र हुआ । जिसका नाम सुव्रत रखा गया । साढे सात हजार वर्ष की अवस्था में भगवान ने पिता द्वारा प्रदत्त राज्य को ग्रहण किया । १५ हजार वर्ष तक राज्य करने के बाद भगवान ने दीक्षा लेने का निश्चय किया । लोकान्तिक देवों ने भी आकर भगवान से दीक्षा के लिए निवेदन किया। भगवान ने बर्षीदान दिया । देवों द्वारा सजाई गई अपराजिता नामकी शिबिका पर आरूढ होकर नीलगुहा नामके उद्यान में आये । वहां फाल्गुन शुक्ला १२ के दिन श्रवण नक्षत्र में दिवस के अन्तिम प्रहर में एक हजार राजाओं के साथ प्रव्रजित हुए । भगवान को उस समय मनः पर्ययज्ञान उत्पन्न हुआ। तीसरे दिन भगवान ने राजगृही के राजा ब्रह्मदत्त के घर परमान्न से पारण किया । वहाँ पांच दिव्य प्रकट हुए । ग्यारह मास तक छद्मस्थ अवस्था में रहने के बाद भगवान नीलगुहा उद्यान में पधारे । वहां चंपक वृक्ष के नीचे ध्यान करते हुए फाल्गुण कृष्णा द्वादशी के दिन श्रवण नक्षत्र में संपूर्ण घाती कर्म का क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया । इन्द्रोंने आकर भगवान का केवलज्ञान उत्सव मनाया । समवशरण की रचना हुई। समवशरण में बैठ कर भगवान ने धर्मदेशना दी । धर्मदेशना सुनकर अनेक नर नारियों ने भगवान के पास दीक्षा ग्रहण की । देशना के प्रभाव से इन्द्रादि अठारह व्यक्तियों ने दीक्षा ग्रहण कर गणधर पद प्राप्त किया । भगवान के शासन में वरुण नामक शासनदेव एवं नरदत्ता नाम की शासन देवी हुई ।। ____एक बार भगवान विहार करते हुए भृगुकच्छ पधारे । वहां जितशत्रु नामके राजा राज्य करते थे । भगवान का समवशरण हुआ । देशना सुनने के लिए जितशत्रु राजा घोडे पर चढ़कर आया । राजा अन्दर गया । घोडा बाहर खडा रहा । घोडे ने भी कान उँचे कर प्रभु का उपदेश सुना । उपदेश समाप्त होने पर इन्द्र गणधर ने भगवान से पूछा- "इस समवशरण में किसने धर्म प्राप्त किया ? प्रभु ने उत्तर दिया-जितशत्रु राजा के घोडे ने धर्म प्राप्त किया है। जितशत्रु राजा ने पूछा-यह घोडा कौन है और उसकी आपके धर्म के प्रति श्रद्धा कैसे हुई ? उत्तर में भगवान ने घोडे के पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनाया । घोडे के पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनकर राजा ने घोडे को मुक्त कर दिया। भगवान ने वहां से विहार कर दिया । वे हस्तिनापुर पधारे । वहां कार्तिक नाम का श्रावक रहता था । वह अपने धर्म पर अत्यन्त दृढ था । अपने देव, गुरु, धर्म के सिवाय वह किसी के भी सामने नहीं झुकता था । एक बार उस नगर में भगवावस्त्रधारी संन्यासी आया । उसने अपने पाखण्ड से लोगों पर अच्छा प्रभाव जमाया । वह मासोपवासी था । महिने के पारणे के अवसर पर नगर के सभी प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने संन्यासी को निमंत्रित किया परंतु । __सम्यक्त्व धारी श्रावक होने के कारण कार्तिक सेठ ने संन्यासी को आमन्त्रित नहीं किया । और न उपदेश सुनने के लिए उसके पास गया । कार्तिक सेट की इस धार्मिक दृढता पर वह अत्यन्त युद्ध हुआ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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