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उसने कार्तिक सेठ को हर प्रकार से अपमानित करने का निश्चय किया । वह इसके लिए उपयुक्त अवसर की खोज करने लगा। .. एक समय जितशत्रु राजा ने मासखमण के पारणे के लिए संन्यासी को अपने घर निमंत्रित किया । संन्यासी ने राजा को कहलवाया कि अगर कार्तिक सेठ मुझे भोजन परोसेगा तो मैं आपके घर पारणा करूगा। राजा ने सेठ को बुलाकर उसे संन्यासी को भोजन परोसने की आज्ञादेदी । राजाज्ञा को मानकर कार्तिक सेठ संन्यासी को भोजन परोसने लगा । भोजन परोसते हुए कार्तिक सेठ का वह बार बार तिरस्कार करता था । संन्यासी से तिरस्कृत कार्तिक सेठ सोचने लगा-यदि मैं दीक्षित होता तो मुझे यह विडम्बना न सहन करनी पडती ।
दूसरे दिन जब उसे भगवान मुनिसुव्रत के आगमन का समाचार मिला तो वह एक हजार आठवणिकों के साथ भगवान की सेवा में पहुचा और प्रव्रज्या ग्रहण कर आत्म साधना करने लगा । बारह वर्ष तक चारित्र पालन कर वह मरकर सौधर्मेन्द्र बना । संन्यासी मरकर सौधर्मेन्द्र का वाहन एरावत हाथी बना, पूर्वजन्म का वैर स्मरणकर हेरावत इधर उधर भागने लगा । इन्द्र ने वज्र के प्रहार से उसे वश में कर लिया।
___भगवान के परिवार में ३०००० तीस हजार साधु, ५०००० पचास हजार साध्वियां, ५०० पांचसो चौदह पूर्वधर, १८०० अठारह सो अवधिज्ञानी, १५०० पन्नरह सो मनःपर्ययज्ञानी, १८०० अठारहसो केवलज्ञानी, २००० दो हजार वैक्रियलब्धिधारी, १२०० एक हजार दो सौ वादी, १७२००० एक लाख बहोतर हजार श्रावक, एवं ३ लाख ५० हजार श्राविकाए थीं ।। ___अपना निर्वाणकांल समीप जानकर भगवान समेतशिखर पर पधारे । वहां एक हजार मुनियों के साथ अनशन ग्रहण किया । एक मास के अन्त में ज्येष्ठ कृष्णा नवमी के दिन श्रवण नक्षत्र में अवशेष कर्मो
र भगवान मोक्ष में पधारे । भगवान की कुल आयु तीस हजार वर्ष की थी। भगवान मल्लीनाथ के निर्वाण के बाद ५४ लाख वर्ष के बीतने पर भगवान मुनिसुव्रत प्रमु का निर्वाण हुआ । २१ भगवान श्रीनमिनाथ
जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह में भरत नामक विजय में कौशांबी नाम की नगरी थी । वहां सिद्धार्थ नामका राजा राज्य करता था । उन्होंने संसार से विरक्त होकर सुदर्शन नामक मुनि के समीप दीक्षा ग्रहण की । सिद्धार्थमनि ने कठोर तप करते हुए तीर्थकर नामकर्म के बीस बोलों की सम्यग आराधना कर तीर्थकर नाम कर्म का उपार्जन किया । अन्तिम समय में अनशन कर वे अपराजित नामक विमान में देवरूप से उत्पन्न
- जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मिथिला नामकी नगरी थी । वहां विजय नाम के प्रतापी राजा राज्य करते थे । उनको पट्टरानी का नाम वा था । वह गंगा को तरह पावनमूर्ति थी।
सिद्धार्थ मुनि का जीव अपराजित विमान से तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट आयु पूर्ण कर आश्विन मास की पूर्णिमा के दिन अश्विनी नक्षत्र के योग में महारानी वप्रा के गर्भ में उत्पन्न हुआ । महारानी वप्राने गर्भ के प्रभाव से चौदह महास्वप्न देखे । महारानी गर्भ का विधिवत् पालन करने लगी ।
गर्भकाल के पूर्ण होने पर महारानी वप्रा ने श्रावणकृष्णा अष्टमी के दिन अश्विनी नक्षत्र के योग में नील कमल चिन्ह से चिह्नित सुवर्ण कान्ति वाले दिव्य पुत्र रत्न को जन्म दिया । भगवान के जन्मते ही समस्तदिशाएँ प्रकाशित हो उठी । इन्द्रों, के आसन चलायमान हुए । छप्पन दिग्कुमारिकाएँ आई । उन्होंने मेरु पर्वत पर भावी तीर्यकर को लेजाकर जन्मोत्सव किया । विजय राजा ने भी पुत्र जन्म के उपलक्ष में बडा उत्सव किया ।
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