________________
शीघ्र ही वह मिथिला पहुचा । उसने महाराजा कुम्भ के समक्ष अपने महाराजा प्रतिबुद्धि के लिए मल्लीकुमारी की मंगनी का पत्र पेश किया
अंगदेश में चपा नामकी नगरी थी। वहां चन्द्रच्छाय नामका राजा राज्य करता था । उस नगरी में अर्हन्नक आदि बहुत से नौ वणिकू (नौका से व्यापार करनेवाले) रहते थे । वे बडे ऋद्धि सम्पन्न
और धनाढय थे । उनमें अर्हन्नक नामक श्रमणोपासक भी था, वह जीव, अजीव आदि नव तत्त्वों का ज्ञाता था । ____ एक बार अर्हन्नक श्रमणोपासक ने अपने साथियों से बिचार विमर्ष किया कि हमें चार प्रकार की वस्तुएं (गणिम-गिन गिनके वेचने योग्य नारियल आदि, धरीम तोलकर बेचने योग्य वस्तु घृत तेल आदि मेय-मापकर बेचने योग्य अनाज आदि, और परिच्छेद्य-काट कर बेचने योग्य सुवर्ण आदि) जहाज में भरकर समुद्र के रास्ते विदेश में प्रवास करना चाहिए । अर्हन्नक श्रावक की यह बात सभीने स्वीकार की वहुमूल्य वस्तुएं गाडियों में भरदी गई । खाने पीने की चीजों का संग्रह भी गाडियों में यथास्थान रख दिया गया । शुभतिथि और शुभ मुहूर्त में अपने ज्ञातिजनों व मित्रों को भोजन कराया और उनसे विदा ले वे गम्भीर नामक बन्दरगाह पर पहुचे । वहां पूर्व से ही सज्जित जहाज में उन्होने सामान भर दिया । अपने परिजनो का मंगलमय आशिर्वाद प्राप्त कर वे यात्रा के लिए चले ।
सो योजन से भी अधिक दूरी पर पहुँचे तो अचानक समुद्र में भयंकर तुफान आया । आकाश में काले बादल छा गये । बिजली के साथ मेघ भयानक गर्जना करने लगा । देखते देखते जहाज उछलने लगा। गेंद की तरह उपर नोचे जाने लगा । इतने में अट्टहास करता हुआ एक पिशाच दिखाई दिया । ताड़ के समान उसकी लम्बी जांघे थी और उसकी भूजाएं आकाश तक पहुंची हुई थी । उसका तन काजल की तरह काला रंग जैसा था । हाथी की तरह बाहर निकले हुए लम्बे-लम्बे दांत थे । सांप की तरह दो लम्बी जीभे बिजली के समान लपके मार रही थी। उनकी भृकुटी वक्र और अत्यन्त डरावनी थी । उसके हाथ में बिजली की तरह चमकती हुई तलवार थी । गले में नरमुण्ड की माला थी । भयानक विषैले जन्तु उसके शरीर के अवयवों पर इधर उधर रेंगते हुए दृष्टिगोचर हो रहे थे। वह पिशाच जहाज पर पहुँचा । उसका एकपैर जहाज पर था और एक पैर आकाश में अधर लटक रहा था ।
उसके भयानक रूप को देखकर और हृदय को भयभीत करने वाला अट्टहास सुनकर नौ वणिक् घबरा उठे । कोई शिव को याद करने लगा तो कोई भगवान विष्णु को । सभी अपने अपने इष्ट देवों से इस भयंकर संकट से परित्राण पाने के लिए प्रार्थना करने लगे और मनौतियां मनाने लगे ।
अर्हन्नक श्रमणोपासक भयानक पिशाच को देख अपने स्थान से खडा हुआ । उस पिशाच के भयानक रूप से जराभी भयभीत नहीं हुआ । वह एकान्त स्थान में पहुंचा जगह को साफ कर आसन विछाया और हाथ जोड़कर बोला
_हे अरिहंत भगवन्त यावत् सिद्धि को प्राप्त प्रभु को नमस्कार हो । यदि मैं इस उपद्रव्व से मुक्त हो जाऊं तो मैं अपना कायोत्सर्ग पूरा करुंगा यदि संकट से मुक्त न होऊं तो मैं तब तक अपना कायोत्सर्ग , जारी रखूगा । इस प्रकार सर्वसावद्ययोग (पापमय योग) का परित्याग कर भगवान का ध्यान करने लगा।
ध्यानस्थ श्रमणोपासक अरहन्नक को देख पिशाच बोला-अकाल में मोत की इच्छा करने वाले अरहन्नक ! यदि तुम अपनी और अपने साथिदारो को भलाई चाहते हो, अपने प्र चाहते हो तो तुम अपने धर्म का तथा-प्रत्याख्यान का त्याग करो । इसी में तुम्हारी भलाई है। यदि तुमने धर्म श्रद्धा का, ग्रहण किये गये व्रतों का त्याग नहीं किया तो इस नंगी तलवार से तुम्हारे शरीर के
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org