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टुकडे-टुकडे कर दूगा । इतना ही नहीं सारे जहाज को अपनी दो अंगुलियों पर उठाकर समुद्र में डूबो दुंगा । और तुम लोग अपने माल सामान के साथ समुद्र के रसातल में सदा के लिए सो जावोगे ।
बार बार डराने धमकाने पर भी अरहन्नक अपने ध्यान में अविचल था । इन धमकियों का उसपर तनिक भी असर नहीं हुआ । नौ वणिकू भी अरहन्नग से कहने लगे-अरहन्नग ! तुम इस पिशाच की बात मान जाओ । इसी में हम सर्व की भलाई है । वरना यह पिशाच हमारे जहाज को समुद्र में डूबो देगा और हम सदा के लिए अपने जीवन से हाथ धो बैठेंगे ।" अहरहन्नक पर नौं वणिकों की इस बात का कोई असर नहीं पड़ा । वह तो अपने ध्यान में इतना लवलीन बना था कि बाहर क्या हो रहा है उसका उसे कोई पता भी नहीं था । आत्मा की अमरता और देह की भिन्नता पर वह निरन्तर विचार करता था । संसार के ये सर्व पदार्थ जीवात्मा के लिए सर्व सुलभ है । किन्तु धर्म का मिलना हि दुर्लभ है । बाह्यवस्तुओं के प्रलोभन में धर्म का परित्याग नहीं किया जा सकता ।
अर्हन्नक श्रमणोपासक की अविचल धर्मश्रद्धा के समक्ष पिशाच पराजित हो गया । उसका भय या त्रास अरहन्नक को धर्म से च्युत नहीं कर सका । उसने अपने पिशाच रूप को समेट लिया और उसके स्थान पर एक दिव्य रूप में प्रकट हुआ । समुद्र का तुफान शान्त हो गया । जहाज पूर्ववत् स्थिर हो गया और गंतव्य मार्ग की ओर बढने लगा । अकाश के बीच खड़ा हो देव मधुर स्वर में बोला
श्रमणोपासक अरहन्नक ! तुम धन्य हो ! तुम्हारी अविचल धर्म श्रद्धा के सामने मेरा यह मस्तक नत है । मैं सौधर्म देवलोक का एक देव हूँ । सौधर्मेन्द्रजी ने देवसभा में तुम्हारी अत्यंत प्रशंसा करते हुए
कहा-चंपा नगरी का निवासी अर्हन्नक श्रमणोपासक को कोई भी देव दानव या मानव उसे धर्म से च्युत नहीं कर सकता उसे विचलित नहीं कर सकता ।” शक्रेन्द्र की इस बात पर मुझे विश्वास नहीं हुआ । मेरे मन में विचार आया-मनुष्य तो हाडपिंजर का बना हुआ पुतला है । दुःख कातर (कायर)है । वह धर्म तो क्या प्रिय से प्रिय वस्तु का भी त्याग कर सकता है यदि सौधर्मेन्द्र की बात सच है तो मुझे स्वयं चलकर उसकी परीक्षा करनी चाहिए ।” यह सोच मैं यहां तुम्हारी परीक्षा करने आया । भयानक पिशाच का रूप बनाकर तुम्हें धर्म श्रद्धा से च्युत करने का भरसक प्रयत्न किया । किन्तु तुम्हारी अविचल धर्म श्रद्धा के सामने मेरे सब प्रयत्न विफल हो गये । जैसी इन्द्र ने तुम्हारी प्रशंसा की थी तुम्हें उससे भी बढकर धर्म में दृड पाया । तुम्हारा जीवन सचमुच धन्य है । जिन धर्म को निर्ग्रन्थ प्रवचन को तुमने अपने जीवन में उतारा है मेरे अपराध की आप क्षमा करें । मैंने आपको बड़ा कष्ट दिया । भयभीत किया । आपके साथ किये गये अनुचित व्यवहार के लिए मैं लज्जित हूँ। आप महान हैं
और मैं अधम हूँ । यह कहकर अरहन्नक श्रमणोपासक को देव ने प्रणाम किया और एक दिव्य कुण्डल युगल भेंट किया । देव वहां से चला गया ।
समस्त उपद्रव दूर हुआ जान कर अरहन्नक ने कार्योत्सर्ग को पाला । सब लोगों ने अरहन्न की भूरि भूरि प्रशंसा की । जहाज चलते चलते गम्भीर नामक बन्दरगाह पर पहुंचा । जहाज में से सामान उतारा गया और उसे गाडियों में भरा । सामान भर कर नौ बणिक मिथिला की ओर चल पड़े ।
मिथिला पहँचने पर अरहन्नक श्रावक ने महाराज कुम्भ की भेंट ली और देव प्रदत्त दिव्य क युगल को उपहार के रूप में महाराजा को समर्पित किया । महाराजा कुम्भ ने अपनी मल्ली कुमारी को बलाकर उसे दिव्य कुण्डल युगल पहना दिये महाराजा ने अरहन्नकादि व्यापारियों का बहुत आदर सत्कार किया और उनका राज्य महसूल माफ कर दिया । तथा रहने के लिए एक बड़ा आवास दे दिया । वहां कछ दिन व्यापार करने के बाद उन्होंने अपने जहाजों में चार प्रकार का किराणा भर कर समुद्रमार्ग से चम्पा नगरी की ओर प्रस्थान कर दिया ।
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