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मेघरथ बोले-बाज ! क्या त् मांस हो खाता है ? दूसरा कुछ भी नहीं खा सकता ! यदि ऐसा ही है तो लो, मैं तेरी इच्छा पूरी करने को तैयार हूँ। तुझे केवल मांस ही चाहिये तो मैं अपने शरी के मांस को काट कर कबूतर के बराबर तुझे देता हूँ। फिरतो तू इस कबूतर को मांग नहीं करेगा !
बाज-नहीं महाराज ! मुझे कबूतर नहीं चाहिए अगर आप अपने शरीर का माँस काट कर देंगे तो मैं उसे खा कर ही तृप्त हो जाऊंगा ।।
महाराजा मेघरथ ने बिना कुछ विचार किये कबूतर को प्राणरक्षा के लिए उसीक्षण छूरी और तराजू मंगवाया । तराजू के एक पल्ले में कबूतर को बिठाया और महाराज स्वयं अपने शरीर का मांस काटकर दूसरे पल्ले में रखने लगे । यह देखकर राज्य परिवार में हा हा कार होउठा । रानियां राजकुमार मंत्रीगण एवं प्रजागण बड़ा आक्रन्दन करने लगे । महाराजा को ऐसा न करने के लिए खूब समझाने लगे । किन्तु महाराज मेघरथ उन सब की उपेक्षाकर अपने शरीर का मांस काट काट कर तराजू में रखने लगे । शरीर का बहुत कुछ हिस्सा काट कर तराजू में रखने के बावजूद भी कबूतर वाला पलडा ऊपर उठा ही नहीं । महाराज को तीव्र वेदना हो रही थी किन्तु अत्यन्त शान्त भाव से उसे सह रहे थे । अन्त में महाराज स्वयं पलडे में बैठ गये।
महाराज का यह आत्मसमर्पण देखकर देव अवाक हो गथा । आकाश से पुष्प बरसने लगे । सर्वत्र धन्य धन्य की आबाज आने लगी । शरणागत रक्षक महामानव मेघरथ महाराज की जव हो ” यह कहता हुआ एक दिव्यकुण्डलधारी देव प्रकट हुआ और महारजा मेघरथ को प्रणाम कर बोला है राजन् ! मैं ईशान देवलोक का एक देव हूँ । एक बार देवसभा में ईशानेन्द्र ने आपकी दयालुता धार्मिकता ओर शरणागत वात्सल्य आदिगुणोंकी प्रशंसा की । मुझे इन्द्र की बात पर विश्वास नहीं हुआ और मैं आपकी परीक्षा करने आया हूँ । आप धन्य हैं । जैसी इन्द्र ने आपकी प्रशंसा की थी, उससे भी अधिक आप गुणवान हैं । आपके जन्म से यह पृथ्वी धन्य हो गई है। मैंने अकारण ही आप को जो कष्ट दियां उसके लिये आप मुझे क्षमा करें ।
देवने अपनी माया समेटली और वह अपने स्थान चला गया । महाराजा मेघरथ ने प्रजाजनों के पूछने पर कबूतर और बाजरूपधारी देवों का पूर्वभव बताया ।
एक बार महारज पौषधव्रत कर रहे थे । उन्हें अहम तप था । धर्मध्यान में निमग्न देखकर ईशानेन्द्र मेघरथ राजा को प्रणाम किया । हाथ जोड़ते हुए इन्द्र को देखकर इन्द्रानियों ने पूछा-स्वामिन् !
आप किसको नमस्कार कर रहे हैं ? इन्द्र ने कहा-मेघरथ राजा को प्रणाम कर रहा है । महाराज मेघ. रथ आगामी भव में सोलहवें शान्तिनाथ नाम के तीर्थंकर भगवान होंगे । उनका ध्यान इतना निश्चल और दृढ होता है कि उन्हें चलायमान करने में कोई भी देव या देवी समर्थ नहीं ।
इन्द्र की इस बात पर सुरूपा और प्रतिरूपा नाम की दो इन्द्रानियों को विश्वास नहीं हुआ । वे मेघरथ को ध्यान से विचलित करने के लिए वहां आई और अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसर्ग करने लगी। रातभर उपसर्ग करने के बाद भी जब मेघरथ को अविचल देखा तो वह हार गई । अन्त में इन्द्रानियों ने अपना असली रूप प्रकट कर मेघरथ की धार्मिक दृढता की प्रशंसा करते हुए अपने अपराध की क्षमा मांगी तथा मेघरथ को प्रणाम कर अपने स्थान चली गई। एक वार तीर्थकर भगवान धनरथ स्वामी का समवशरण हआ । महाराजा मेघरथ ने अपने समस्त परिवार के साथ भगवान के दर्शन किये । और उपदेश श्रवण किया । उपदेश सुनकर मेघरथ को वैराग्य उत्पन्न हो गया । युवराज दृढरथ के साथ मेघरथ राजा ने दीक्षा ग्रहण की। साथ में सात सौ पत्रों औ चार
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