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हजार राजाओं ने भी दीक्षा ली एक लाख पूर्वतक विशुद्ध संयम का पालन कर पुन्योदये तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन कर अनशन पूर्वक मरकर सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप से उत्पन्न हुए ।
१६ भगवान श्री शान्तिनाथ का जन्म -
कुरुदेश में हस्तिनापुर नामका नगर था वहां विश्वसेन नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम अचिरा था। मेघरथ देव का जीव सर्वार्थसिद्ध विमान से चवकर भाद्रपद कृष्णा सप्तमी के दिन भरणी नक्षत्र में जब चन्द्रमा का योग आया तब महारानी अचिरा देवी की कुक्षि में अवतरित हुए । उस समय महारानी अचिरादेवी ने चौदह महास्वप्न देखे । महारानी ने गर्भ धारण किया । गर्भ में भगवान के आने से सारे विश्व में शान्ति व्याप्त हो गई । और महामारी, दुष्काल जैसी विपत्तियां शान्त हो गई ।
गर्भकाल के पूर्ण होने पर जेष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी के दिन भरणी नक्षत्र में महारानी ने पुण्य पुंज पुत्र को जन्म दिया । भगवान के जन्मते ही तीनोंलोक में प्रकाश फैल गया । इन्द्रों के आशन कम्पित हो उठे । दिशाकुमारियां आई अने इन्द्र भी आये और मेरुपर्वत पर बाल भगवान का जन्माभिषेक किया । महाराज विश्वसेन ने भी पुत्र का जन्मोत्सव मनाया । जब भगवान गर्भ में थे तब उनके प्रभाव से नगर की महामारी शान्त हो गई थी अत: बाल भगवान का नाम शान्तिनाथ रखा ।
युवा होने पर यशोमती आदि अनेक राजकुमारियों के साथ उनका विवाह हुआ राजकुमार शांतिनाथ जब पच्चीस हजार वर्ष के हुए तब उन्हें महाराज विश्वसेन ने राज्य भार सौंप कर स्वयं प्रव्रज्या ग्रहण की और वे आत्मसाधना करने लगे । भगवान श्री शान्तिनाथ की रानी यशोमती ने चक्रायुद्ध नामक पुत्र को जन्म दिया । शान्तिनाथ के शस्त्रागार में चरत्न उत्पन्न हुआ। चक्ररत्न के बाद अन्य तेरह रहन भी उनकी सहायता से महाराजा शान्तिनाथ ने भरत क्षेत्र के छह प्राप्त करने में आठ सौ वर्ष लगे। देवीं और इन्द्रों ने और वर्ती पद पर अधिष्ठित किया उन्हें इस अवसर्पिणी काल का पाचवा चक्रवर्ती घोषित किया । आठ सौ वर्ष कम पच्चीस हजार वर्ष तक भगवान चक्रवर्ती पद पर आशीन रहें ।
कालान्तर में उत्पन्न हुए खण्डों को जीता । छहों खण्डों पर विजय मनुष्यों ने मिलकर शान्तिनाथ को चक्र
एक समय चक्रवर्ती शान्ति नाथ संसार की असारता का विचार कर रहे थे। इतने में लोकान्तिक देव भगवान के पास आये और प्रणाम कर कहने लगे-भगवान् ! अब आप धर्मचक्र का प्रवर्तन करें। जनकल्पान के लिए चारित्र ग्रहण कर तीर्थ की स्थापना करें।
भगवान पूर्व से ही वैराग्य रंग में रंगे हुए थे। देवों की प्रेरणा पर उन्हों ने दोक्षा लेने का दृढ निश्चय किया । अपने पुत्र चक्रायुद्ध को राज्य भार देकर वे वर्षीदान देने लगे । वर्षीदान की समाप्ति पर इन्द्रादि देवों ने सागरदत्ता नाम की शिविका सजाई। शिविका पर आरुढ होकर जेष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन भरणी नक्षत्र में सहस्राम्र उद्यान में पधारे । वहां एक हजार राजाओं के साथ प्रव्रज्या ग्रहण की भावों की उच्चता से भगवान को मनः पर्ययज्ञान उत्पन्न हुआ । उस दिन भगवान के वेले का तप था । तीसरे दिन भगवान ने मन्दिरपुर के राजा सुमित्र के घर परमान्न से पारणा किया ।
एक वर्ष तक भगवान छदमस्थ अवस्था में विचरने के बाघ पुनः हस्तिनापुर के सहस्राम्र उद्यान में पधारे। वहां पोप सुदि नवमी के दिन भरणी नक्षत्र में शुक्लध्यान को परमोच्चस्थिति में उन्हें केवलज्ञान और केवल दर्शन उत्पन्न हो गया । इन्द्रों ने केवल उत्सव मनाया। समवशरण की रचना की। भगवान ने समवशरण में विराजकर देशना दी । इस देशना से प्रभावित हो महाराजा चक्रायुध ने अपने पुत्र
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