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________________ ५-भगवान श्री सुमतिनाथ : अयोध्या नाम की नगरी में मेघ नामके राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम मंगलादेवी था । पुरुषसिंह का जीव वैजयन्त विमान से चवकर श्रावण शुक्ला द्वितीया के दिन माघ नक्षत्र में महारानी मंगला के उदर में उत्पन्न हुए । महारानी ने तीर्थंकर को सूचित करने वाले चौदह महास्वप्न देखे । रानी गर्भवती हुई । गर्भकाल के पूर्ण होने पर वैशाख शुक्ला अष्टमी के दिन माघ नक्षत्र के योग में क्रोंच पक्षी के चिन्ह से चिह्नित सुवर्ण कान्ति वाले ईक्ष्वाकु कुल के दीपक समान पुत्र को जन्म दिया । भगवान के जन्म से तीनों लोक प्रकाशित हो उठे । दिग्कुमारिकाएँ आई । इन्द्रादि देवों ने मेरुपर्वत पर लेजाकर जन्माभिषेक किया । जव भगवान गर्भ में थे तब कुल की शोभा बढाने वाली उत्तम बुद्धि उत्पन्न हुई थी । अतः माता पिता ने बालक का नाम 'सुमति' रखा । युवावस्था में भगवान का विवाह किया गया । उस समय भगवान की काया तीनसौ धनुष्य ऊँची थी । जन्म से दसलाख पूर्व बीतने पर पिता के आग्रह से राज्य ग्रहण किया बारह पूर्वांग सहित उनतीस लाख पूर्व राज्यावस्था में रहने के बाद भगवानने दीक्षा लेने का विचार किया । भगवान के मनोगत विचारों को जानकर लोकान्तिक देवों ने भी जग कल्याण के लिए दीक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की । तदनुसार भगवान ने वर्षीदान्त दिया । वर्षीदान में भगवाने तीन अरब अठासी करोड अस्सीलाख सुवर्णमुद्राओं का दान किया । वर्षीदान के समाप्त होने पर देवों द्वारा तैयार की गई 'अभयकरा' नाम कि शिविका पर भगवान आरूढ हुए और सुर असुर एवं मनुष्य के विशाल समूह के साथ सहस्राम्र उद्यान में पधारे । वैशाख शुक्ला नवमी के दिन मध्याह्न के समय मघा नक्षत्र के योग में भगवान ने एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की । भगवान को उसी क्षण चतुर्थज्ञान मनःपर्यव उत्पन्न हुआ । दूसरे दिन भगवान ने बिजयपुर के राजापद्म के घर परमान्न (खीर) से पारणा किया । उस दिन पद्मराजा के घर वसुधारा आदि पांच दिव्य प्रकट हुए । बीस वर्ष तक भगवान छद्मस्थ अवस्था में पृथ्वी पर विचरण करते रहे । अनेक ग्राम नगरों को पावन करते हुए भगवान अयोध्या नगरी के बाहर सहस्राम्र उद्यान में पधारे। वहां प्रियंगु वृक्ष के नीचे ध्यान करने लगे। उस दिन भगवान के षष्ठ तप था । चैत्र शुक्ला एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में भगवान ने समस्त घाति कर्मो को क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त किया । देवों ने केवलज्ञान उत्सव मनाया । समवशरण की रचना हुई । भगवान ने उपदेश दिया। भगवान की देशना सुनकर अनेक नरनारियों ने भगवान से प्रव्रज्या ग्रहण की उनमें 'चमर' आदि सौ गणधर मुख्य थे । भगवान ने चतुर्विध संघ की स्थापना की । भगवान के तीर्थ में 'तुंबरु' नामक यक्ष एवं महाकाली नाम की शासन देवी हुई । ___ भगवान के परिवार में ३,२०००० साधु, ६,३०००० साध्वी, २४०० चौदह पूर्वधर, ११००० अवधिज्ञानी, १०४५० मनः पर्ययज्ञानी, १३००० केवधज्ञानी, १८४०० वैक्रिय लब्धिधारी १०४५० वादी, २८१००० श्रावक एवं ५ १६००० श्राविकाएं थी। वे केववज्ञान प्राप्ति के बाद बीस वर्ष बाहर पूर्वाग न्यून एक लाख पूर्व तक पृथ्वीपर विचरण करते रहे । अपना मोक्षकाल नजदीक जान कर प्रभु समेत शिखर पर पधारे वहां एक हजार मुनियों के साथ अनशन ग्रहण किया । एक मास के अन्त में चैत्र शुक्ला नवमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में अवशेष कर्मो को क्षयकर एक हजार मुनियों के साथ निर्वाण प्राप्त किया । भगवान दस लाख पूर्व कौमार अवस्था में, उनतीस लाख बारह पूर्वांग राज्य अवस्था में एवं वारह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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