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________________ ३२ पूर्वांग कम लाख पूर्व चारित्रावस्था में रहें । इस प्रकार भगवान की आयु चालीस लाख पूर्व की थी। भगवान श्री अभिनंदन के निर्वाण के पश्चात् नौलाख करोड सागरोपम बीतने पर सुमतिनाथ भगवान मोक्ष पधारे । ६-भगवान श्रीपद्मप्रभु वत्स देश की राजधानी कोशांबी नगरी थी । वहां के शासक का नाम 'धर' था । महाराज 'धर' की रानी का नाम 'सुसीमा' था । अपराजित मुनि का जीव देवलोक का आयुष्य पूर्ण करके चौदह महास्वप्न पूर्वक माघ कृष्णा छठ की रात्रि में चित्रा नक्षत्र में महारानी सुसीमा की कुक्षि में उत्पन्न हुए । गर्भकाल पूरा होने पर कार्तिक कृष्णा द्वादशी को चित्रा नक्षत्र के योग में भगवान का जन्म हुआ । गर्भ में माता 'पद्म' की शय्या का दोहद होने से बालक का नाम 'पद्मप्रभ' रखा गया । युवावस्था में भगवान का विवाह हुआ । साढे तीन लाख पूर्व तक युवराज रहकर फिर भगवान का राज्यारोहन हुआ । साढे इक्कीस लाख पूर्व और १६ पूर्वांग तक राज्य का संचालन किया । इसके वाद कार्तिक कृष्णा तेरस को चित्रा नक्षत्र के योग में संसार का त्याग कर वर्षीदान दे कर वैजयन्ती नामक शिबिका में बैठकर सहस्राम्र उद्यान में एक हजार राजाओं के साथ दिन के पिछले प्रहर में छठ-दो दिनके उपवास के तप के साथ प्रव्रजित हुए । दूसरे दिन भगवान ने ब्रह्मस्थल के राजा सोमदेव के घर परमान्न से पारणा किया । छमास तक छद्मस्थ काल में विचर कर चैत्र पूर्णिमा के दिन कौशाम्बी के सहसाम्र उद्यान में चित्रा में केवलज्ञान केवल दर्शन प्राप्त किया । समवशरण की रचना की । उस अवसर पर सुव्रत आदि १०७ व्यक्तियों ने प्रव्रज्या लेकर गणधर पद प्राप्त किया । __ अपने सोलह पूर्वाग कम एक लाख पूर्व तक संयम का पालन किया । इस प्रकार कुल तीसलाख पूर्व का आयुष्य भोग कर मार्गशीर्ष एकादशी के दिन चित्रा नक्षत्र के योंग में एकमास की संलेखना पूर्वक आप सम्मेत शिखर पर ३०८ मुनियों के साथ सिद्ध गति को प्राप्त हुए । भगवान के सुव्रत आदि १०७ गणधर, थे ३३०००० साधु, ४२०००० रति आदि साध्वियां, २३०० चौदहपूर्व धर, १०००० अवधिज्ञानी, १०३०० मनः पर्यवज्ञानी, १२००० केवलज्ञानी, १६१०८ वैक्रियलब्धि धारी, ९६०० वादलब्धि सम्पन्न, २७६००० श्रावक एवं ५०५००० श्राविकाओं का परिवार था । भगवान श्री सुमतिनाथ के निर्वाण के बाद ९० हजार करोड सागरोपम बीतने पर भगवान श्री पद्म प्रभु का निर्वाण हुआ । ७-भगवान श्रीसुपार्श्वनाथ काशी देश की राजधानी वाणारसी में प्रतिष्ठसेन नामका राजा राज्य करता था। उनकी रानी का नाम पृथ्वी था । जैसा उनका नाम है वैसा ही उनमें दिव्य गुण थे । नंदिषेणमुनि का जीव ग्रैवयेक से चवकर भाद्रपद कृष्णा अष्टमी को अनुराधा नक्षत्र में महारानी पृथ्वी की कुक्षि में चौदह महास्वप्न पूर्वक उन्पन्न हुए । महारानी ने क्रमशः पांच और नौ फणवाले नाग की शय्या पर स्वयं को सोई हुई देखा । ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी को विशाखा नक्षत्र में भगवान ने जन्म ग्रहण किया । अन्य तीर्थंकरों की तरह भगवान का भी इन्द्रादि देवों ने जन्मोत्सव आदि किया । गर्भकाल में माता का पार्श्व-(छाती और पेट के अलग बगल का हिस्सा) बहुत ही उत्तम और सुशोभित लगता था । अतः पुत्र का नाम भी सुपार्श्वकुमार रखा गया । सुपार्श्व कुमार ने क्रमशः योवन वयं को प्राप्त किया । युवा होने पर सुपार्श्व कुमार का अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह हुआ । पांच लाख पूर्व तक युवराज पद पर प्रतिष्ठित रहने के वाद पिता ने सुपार्श्व कुमार को राज मद्दी पर स्थापित किया । भगवान की उंचाई २०० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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