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कर आचार्य महाराज हमें आपके पास भेजा है । यदि सार्थवाह को स्वीकार हो तो वे भी उनके साथ जाना चाहते है । मणिभद्र ने उत्तर दिया - सार्थवाह का अहोभाग्य है अगर आचार्य महाराज साथ में पधारे किन्तु जाने के समय अचार्य महराज स्वयं आकर सार्थवाह को कह दें । यह कहकर नमस्कार पूर्वक उसने मुनियो को विदा किया। साधुओ ने जाकर सारीबात श्री आचार्य महाराज को कही उसे स्वीकार करके आचार्य महाराज अपने मुनि परिवार के साथ सार्थवाह को दर्शन देने के लिए उनके डेरे पर गये । अपने द्वार पर आये हुए आचार्य महाराज का सार्थवाह ने उचित सत्कार किया और उनसे विनयपूर्वक आने का कारण पूछा । आचार्य महाराज ने कहा हम भी तुम्हारे साथ वसन्तपुर जाना चहाते है ।
धन्ना सार्थवाह ने अपना सद्भाग्य मानते हुए कहा - आचार्य प्रवर ! आज मै धन्य हू आप जैसे महापुरुष के साथ रहने से हमारा काफला पवित्र हो जायगा । हमारे जैसे अनेक व्यक्ति आपके उपदेशांमृत का पान कर सन्मार्ग की ओर आकृष्ट होगे । आप अवश्य मेरे साथ पधारे, उसी समय सार्थवाह ने अपने रसोईयो को बुलाया और कहा - अशनपान आदि जैसा आहार इन मुनिवरो को चाहिए उसे बिना संकोच के देना । इन्हें भोजन विषयक किसी प्रकार का कष्ट न हो इस बात का पुरा ध्यान रखना । इस प्रकार हमारे निमित्त तैयार किया निर्दोष आहार की माधुकरी वृत्ती से असंस्कारित सचित्त जल भी हम
यह सुनकर आचार्य महाराज ने कहा- हे सार्थपते ! हुआ आहार हम अहीं लेते किन्तु दूसरो के लिए बनाया गया ग्रहण करते है । तथा कुआं वापी और तालाव का अग्नि आदि ग्रहण नहीं करते ।
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उसी समय किसी ने पके हुए सुगन्धित आम्रफलो से भरा हुआ थाल सार्थपति को उपहार स्वरुप भेट दिया । उसे देखकर प्रसन्न होते हुए सार्थपति ने आचार्य श्री से कहा- भगवन् ? इन फलो को ग्रहण करके मुझ पर अनुग्रह कीजिए । आचार्य ने कहा - श्रेष्ठिन् ! मुनि सचित्त फल, बीज, कन्द, मूल, ग्रहण कभी नहीं करते । ये पदार्थ निर्जीव ही ग्राह्म है । यह सुनकर सार्थवाह बोला- आपका व्रत अत्यन्त कठोर है । मोक्ष का शाश्वत सुख बिना कष्ट के कहीं मिलता । यद्यपि आपका हमारे से बहुत कम प्रयोजन है फिर भी मार्ग में किसी प्रमार का कष्ट हो तो अवश्य हमें आज्ञा दीजियेगा । ऐसा कहकर सार्थवाह ने आचार्य को प्रणाम किया । आचार्य श्री अपने स्थान पर चले आये ।
दूसरे दिन प्रातः काल होते ही आचार्य महाराज सार्थवाह के काफले के साथ रवाना हुए । सार्थवाह अपने काफले के साथ आगे बढा । सबसे आगे धन्नासार्थवाह अपने रक्षको के साथ चल रहा था उसके पीछे उसका प्रधान मुनिम मणिभद्र और दोनो ओर उसके वीर रक्षक दल था । उनके साथ आचार्य धर्मघोष भी अपनी शिष्य मण्डली के साथ चल रहे थे । उनके पीछे-पीछे अन्य व्यापारी अपने अपने वाहनो के साथ अपने अपने लक्ष्यकी ओर आगे बढ रहे थे धन्नासार्थवाह अपने साथ के सभी व्यक्तियों का पूरा ध्यान रखता था और उनकी हर कठिनाई को दूर करता था । इस प्रकार सार्थपति का विशाल काफला गर्मी की ऋतु में भो सतत प्रयाण करता हुआ आगे बढ रहा था । बडी तेजी से आगे बढते हुए सार्थवाह के काफले ने भयंकर जंगली जानवरों से युक्त अटवी में प्रवेश किया । वह अटवी वृक्षों से इतनी सघन थी कि उससे सूर्य का प्रकाश भी नहीं आता था । सघन तथा लम्बी अटवी को पार करते हुए गर्मी को ऋतु समाप्त हो गई और वर्षांकाल प्रारंभ आ गया । आकाश बादलों से छा गया । आंधी और तूफान के साथ बिजली चमकने लगी । बादल गरजने लगे । और मूसलधार वर्षा होने लगी । नदी नाले पानी से भर गये । मार्ग कीचड और पानी से दुर्गम बन गया । वाहनों का आगे बढना दुष्कर हो गया । स्थान स्थान पर उभरते हुए नदीं नाले सार्थवाह के काफले को आगे बढ़ने से रोक रहे थे । ऐसी
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