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धर्म का विच्छेद हो जायेगा । दूसरे और तीसरे त्रिभाग अवसर्पिणी के तीसरे आरे के दूसरे और तीसरे त्रिभाग अवसर्पिणी के तीसरे आरे के दूसरे और पहले त्रिभाग के सदृश होंगे ।
(५) (६) सुषमा और सुषम सुषमा नामक पांचवां और छठा आरा अवसर्पिणी के द्वितीय और प्रथम आरे के समान होंगा । इसी अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे के चौरासी लक्ष पूर्व और नवासी पक्ष अर्थात् तीन वर्ष और साढे आठ महिने बाकी रहे थे तब भगवान श्रीऋषभदेव मरुदेवी के उदर में अवतरित हुए थे । जिनका संक्षिप्त वृत्तान्त आगे पढ़ें ।........... भगवान श्री ऋषभदेव भगवान श्रीऋषभदेव के तेरह भवः
भगवान श्रीऋषभदेव के जीव ने धन्ना सार्थवाह के भव में सम्यक्त्व प्राप्त किया था । उस भव से लेकर मोक्ष जाने तक तेरह भव किये थे । वे ये हैं
(१) धन्ना सार्थवाह (२) युगलिया (३) देव (सौधर्म देवलोक में) (४) महाबल (५) ललितांगदेव (दूसरे देवलोक में) (६) वज्रजंघ (७) युगलिया (८) देव (सौधर्म देवलोक में) (९) जीवानन्द वैद्य (१०) देव (अच्युत देवलोक में) (११) वज्रनाभ चक्रवर्ती (१२) देव (सर्वार्थसिद्ध विमान में) (१३) प्रथम तीर्थंकर भगवान श्रीऋषभदेव । । प्रथम भव धन्ना सार्थवाहः--
जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में क्षितिप्रतिष्ठित नामका नगर था । वहाँ प्रसन्न चन्द्र नामका एक प्रतापी राजा राज्य करता था । वह अपनी महऋद्धियों के कारण इन्द्र की तरह शोभायमान था । उस नगर में धन्ना सार्थवाहनामका श्रेष्ठी रहता था । जिस तरह अनेक नदियाँ समुद्र में आश्रित रहती है। उसी प्रकार उस श्रेष्ठी के घर अनेक निराश्रित आश्रय पा रहे थे । वह अपनी सम्पत्ति को परोपकार में ही खर्च करता था । वह सदाचारी और धर्म परायण था ।
एक समय उसने किराणा लेकर वसन्तपर जाने का निश्चय किया । उसने सारे नगर में यह घोषणा करवाई कि "धन्ना श्रेष्ठी व्यापारार्थ वसन्तपर जानेवाला हैं जिस किसी को वसन्तपुर चलना हो वह चले । जिसके पास चढने को सवारी नहीं होगी व उसे सवारी देंगे । जिसके पास अन्न वस्त्र नहीं है उसे वे
अन्न वस्त्र भी देगे । जिसके पास व्यापार के लिए धन नहीं उसे धन भी प्रदान करेंगे । तथा रास्ते में चोर डाकुओं से एवं ब्याघ्र आदि हिंस्र प्राणियों से उनका रक्षण करेंगे । इस प्रकार की घोषणा करवाने के बाद धन्ना श्रेष्ठी ने चार प्रकार की वस्तुएं गाडियों में भरी । घर की स्त्रियों में उनका प्रस्थान मंगल किया । शुभ मुहूर्त में सेठ रथ पर आरुढ होकर नगर से बाहर चले । सेठ के प्रस्थान के समय जो मेरी बजी उसको क्षितिप्रतिष्ठित निवासियों ने अपने बुलाने का आमंत्रण समझा और अपनी २ साधन समाग्रियों के साथ तैयार होकर सेट के साथ नगर के बाहर आये । धन्नाश्रेष्ठी नगर के बाहर उद्यान में आकर ठहरे ।
उस समय धर्मधोष नामके तेजस्वी आचार्य अपनी शिष्य मण्डली के साथ नगर में पधारे हुए थे । वे भी वसन्तपुर जाना चाहते थे किन्न मार्ग की कठीनाईयो के कारण वे जा नहीं सकते थे। उन्होंने भी यह घोषणा सुनी धन्ना सार्थवाह का मणिभद्र नामक प्रधान मुनीम था श्रीधर्मघोष आचार्य ने उनके पास अपने दो साधुओ को भेजा । अपने घर पर आये हुए मुनियो को देखकर मणिभद्र ने उन्हें प्रणाम किया और विनयपूर्वक आने का कारण पूछा । साधुओने कहा । धन्नासार्थवाह का वसन्त पूर गमन सुन
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