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________________ जैसा है । छठे आरे के अन्त समय में जो हीनतम अवस्था होती है । उससे इस आरे का प्रारंभ होता है । और क्रमिक विकास द्वारा बढते बढते छठे आरे की प्रारम्भिक अवस्था आने पर यह आरा समाप्त होता हैं । इसी प्रकार शेष आरों में भी क्रमिक विकास होता है । सभी आरे अन्तिम अवस्था से शुरु होकर क्रमिक विकास से प्रारम्भिक अवस्था को पहुचते हैं । यह काल भी अवसीणी काल की तरह दस कोडा कोडी सागरोपम का है। उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में जो अन्तर है वह इस प्रकार है उत्सर्पिणी के छ आरे -दुषम, दुषमा दुषमा, दुषम, सुषमा, सुषम दुषमा, सुषमा, सुषम सुषमा, । (१) दुषम दुषमा-अवसपीणी का छठा आरा आषाढ सुदी पूनम को समाप्त होता है और सावन वदी एकम को चन्द्रमा के अभिजित् नक्षत्र में होने पर उत्सर्पिणी का दुषम दुषमा नामक प्रथम आरा प्रारंभ होता है । यह आरा अवसर्पिणी के छठे आरे जैसा होता है । इसमें वर्ण गन्ध, रस, स्पर्श आदि पर्यायों में तदा मनुष्यों की अवगाहना स्थिति, संहनन, और संस्थान आदि में उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है। यह आरा इक्कीस हजार वर्ष का है। २---दुषमा-इस आरे के प्रारंभ में सात दिन तक. भरत क्षेत्र जितने विस्तारवाले पुष्कर संवर्तक मेघ बरसेंगे । सात दिन की इस वर्षों से छठे आरे के अशुभभाव रुक्षता उष्णता नष्ट हो जायेंगी । इसके बाद सात दिन तक क्षीर मेघ की वर्षा होगी इसमें शुभवर्ण गन्ध रस और स्पर्ष की उत्पत्ति होगी । क्षीर मेघ के बाद सात दिन तक घृत मेघ बरसेगा । इस वृष्टि से पृथ्वी में स्निग्ध (चिकनाहट) उत्पन्न हो जायगी । इसके बाद सात दिन तक अमृत मेघ वृष्टि बरसेगा । जिसके प्रभाव से वृक्ष गुच्छ गुल्म लता आदि बनस्पतियों के अंकुर फूटेंगे । अमृत मेघ के बाद सात दिन तक रस मेघ बरसेगा । रस मेघ की वृष्टि से वनस्पतियों में पांच प्रकार का रस उत्पन्न होगा और उनमें पत्र प्रवाल अंकुर पुष्प फल की वृद्धि होगी । उक्त प्रकार की वृष्टि होने पर जब पृथ्वी सरस हो जायेगी तथा वृक्ष लतादि वनस्पतिशों से हरि, भरि और रमणीय हो जायेगी तब लोग बिलों से निकलेंगे । वे पृथ्वी को सरस सुन्दर और रमणीय देखकर बहुत प्रसन्न होंगे। एक दूसरे को बुलावेंगे और खूब खुशियां मनावेंगे । पत्र, पुष्प, फल आदि से सुशोभित वनस्पतियाँ से अपना निर्वाह होते देख वे मिलकर यह मर्यादा बाधेगे कि आज से हमलोग मांसाहार नहीं करेंगे और मांसाहारी प्राणी को छाया तक हमारे लिए त्याज्य होगी । इस प्रकार इस आरे में पृथ्वी रमणीय हो जायेगी । प्राणी सुख-पूर्वक रहने लगेंगे । इस आरे के मनुष्यों के छहों संहनन और छहों संस्थान होगे । उनकी अवगाहना बहुत से हाथ को और आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट सौ वर्ष की झाझेरी होगी। इस आरे के जीव मरकर अपने कर्मो के अनुसार चारों गतियों में उत्पन्न होंगे, सिद्ध नहीं होंगे । यह आरा इक्कीस हजार वर्ष का होगा । (३) दुषमा सुषमा-यह आरा बयालीस हजार वर्ष कम एक कोडा कोंडी सागरोपम का होगा । इसका स्वरुप अवसर्पिणी के चौथे आरे के सदृश जानना चाहिए । आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट एक करोड पूर्व का होगा । इस आरे में तीन वंश होंगे-तीर्थङ्कर वंश चक्रवर्ती वंश, और दशार वंश इस आरे में तेविस तिर्थकरभगवान रहारह चक्रवर्ती नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नी प्रतिवासुदेव होंगे। (४) सुषम-दुषमा-यह आरा दो कोडा कोडी सागरोंपम का होगा और सारी बातें अवसर्पिणी के तीसरे. आरे के समान होगी इसके भी तीन भाग होंगे किन्तु इनका क्रम उल्टा होगा । अवसर्पिणी के तीसरे भाग के समान इस आरे का प्रथम भाग होगा । इस आरे में श्रीऋषभदेव स्वामी के समान चौबीसवें श्रीभद्रकत तीर्थकर होंगे । शिल्पकलादि तीसरे आरे से चले आयेंगे । इसलिए उन्हें कला आदि का उपदेश देने की आवश्यकता नहीं होगी। कहीं कहीं १५ कुलकर उत्पन्न होने की बात लिखी है । वे लोग क्रमशः धिक्कार मकार, और हाकार दण्ड का प्रयोग करेंगे। इस आरे के तीसरे भाग में राज एवं चारित्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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