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________________ आयु जघन्य अन्तमुहूर्त, उत्कृष्ट एक करोंड़ पूर्व की होती है । एक पूर्व सत्तरलाख करोड़ वर्ष और छप्पन हजार करोंड वर्ष (७०५६००००००००००) का होता है । यहां से आयु पूरी करके जीव स्वकृत कर्मानुसार चारों गतियों में जाते हैं और कई जीव सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होकर सकल दुःखों का अन्त कर देते हैं अर्थात् सिद्ध गति को प्राप्त करते हैं । वर्तमान अवसर्पिणी के आरे में तीन वंश उत्पन्न हुए । अरिहन्त वंश चक्रवर्ती वंश । और दशार वंश इसी आरे में तेईस तीर्थंकर ग्यारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नौ प्रतिवासुदेव उत्पन्न हुए । दुख विशेष और सुख कम होने से यह आरा दुषम सुषमा कहा जाता है ।। (५) दुषमा-पांचवां दुषमाआरा इक्कीस हजार वर्ष का है । इस आरे में मनुष्यों के छहो संस्थान और छहों संहन न होते हैं । शरीर की अवगाहना ७ हाथ तक की होती है । आयु जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट सौवर्ष झाझेरी होती है । जीव स्वकृत कर्मानुसार चारों गतियों में जाते है चौथे आरे में उत्पन्न हुआ कोई जीव मुक्ति भी प्राप्त कर सकता है । जैसे जम्बूस्वामी । वर्तमान पंचम आरे का तीसरा भाग बीतजाने पर गण (समुदाय जाती) विवाहादि व्यवहार, पाखण्डधर्म, राजधर्म, अग्नि तथा अग्नि से होने वाली रसोई आदि क्रियाए चारित्रधर्म और गच्छ व्यवहार-इन सभी का विच्छेद हो जायगा । यह आरा दुख प्रधान है । इसलिये इसका नाम दुषमा है। ६-दुषम दुषमा अवसर्पिणी का दुषमा आरा बीत जाने पर अत्यन्त दुखों से परिपुर्ण दुषमदुषमा नामक छठा आरा प्रारंभ होगा । यह काल मनुष्य और पशुओं के दुख जनित हाहाकार से व्याप्त होगा इस आरे के प्रारंभ में धूलिमय भयङ्कर आंधी चलेगी तथा संवर्तक वायु बहेगी। दिशाए धूली से भरी होंगी इसलिए प्रकाश शून्य होंगी । अरस, विरस, क्षार, खात, अग्नि, विद्युत् और विष प्रधान मेघ बरसेंगे । प्रलयकालीन पवन और वर्षों के प्रभाव से विविध वनस्पतियां एवं त्रसप्राणी नष्ट हो जायेंगे । पहाड और नगर पृथ्वी से मिल जायेंगे । पर्वतों में एक वैताढय पर्वत स्थिर रहेगा । और नदियों में गंगा और सिन्धु नदियाँ रहेगी । काल के अत्यन्त रुक्ष होने से सूर्य खूब तपेगा । और चन्द्रमा अतिशीत होगा । गंगा और सिन्धु नदियों का पाट रथ के चीले जितना अर्थात् पहियों के बीच के अन्तर जितना चौडा होगा और उनमें रथ की धुरी जितना गहरा पानी होगा । नदियां मच्छ कच्छपादि जलचर जीवों से भरी होंगी । भरतक्षेत्र की भुमि अंगार, भोभर राख तथा तपे हुए तवे के सदृश होगी । ताप में वह अग्नी जैसी तथा धुली और कीचड से भी भरी होगी । इस कारण पृथ्वी पर कष्ट पूर्वक चल फिर सकेगे । इस आरे के मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना एक हाथ की और आयु बीस वर्ष की होगी। ये अधिक सन्तानवाले होंगे । इनके वणे गंध, रस, स्पर्श, संहनन. संस्थान सभी अशुभ होंगे। शरीर सब तरह से बेडोल होगा। अनेक व्याधियां घर किये रहेंगी । राग द्वेष और कषाय की मात्रा अधिक होगी धर्म श्रद्धा बिलकुल न रहेंगी । वैत्ताढय पर्वत में गंगा और सिन्धु महानदियों के पूर्व पश्चिम तट पर ७२ बिल है वे ही इस काल के मनुष्यों के निवासस्थान होंगे । ये लोग सूर्योदय और सूर्यास्त के समय अपने अपने बिलों से निकलेंगे और गंगा सिन्ध महानदी से मच्छ कच्छपादि पकडकर रेतमें गाड देंगे । शाम मच्छादि को सुबह निकाल कर खाएँगे और सुबह के गाडे हुए मच्छादि शाम को निकाल कर खायेंगे । व्रत नियम और प्रत्याख्यान से रहित मांस भोजी, मंक्लिष्ट परीणामवाले ये जीव मरकर प्रायः नरक और तिर्यंच में उत्पन्नहोंगे। उत्सर्पिणी काल के छ आरे अवसर्पिणी काल के जो छह आरे हैं । वे ही आरे इस काल में व्यत्पय (उल्टे) रूप से होते हैं इनका स्वरूप भी ठीक उन्हीं जैसा है, किन्तु विपरीत क्रम से । पहला आरा अवसर्पिणी के छठे आरें Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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