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साधु टी. एल वासवानी को जब पूज्य श्री के हैदराबाद पधारने की सूचना मिली तो वे बडे प्रसन्न हुए । पूर्व परिचय तो था ही । वे अपने आश्रम वासियों के साथ पूज्य श्री के दर्शनार्थ आये । उन्होंने पूज्य श्री को अपने आश्रम में व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया तदनुसार पूज्य श्री अपने शिष्यों सहित वहां पधारे । वहां दो व्याख्यान पूज्यश्री के हुए जिससे सुनने के लिए बहुत बडी संख्या में श्रोता वहां आये थे । सन् १९३३ में अंग्रेजों जे भारत को स्वायत्त शासन देना स्वीकृत किया था । उसी के सिलसिले में भारत भर में चुनाव हुए थे । हैदराबाद के माने हुए गृहस्थ श्री मुखी गोविन्दरामजी हिन्दू महासभा की तरफ से चुनाव में खडे हुए थे । वे चुनाव प्रचार के लिए एक दिन सेट लालचन्द एडवाणी के यहाँ आये । उन्हे श्री पार्वती बहन बी. ए. ने पूज्यश्री का एवं तपस्वीजी महाराज का परिजय दिया जिससे वे दर्शनार्थ आये । श्री पार्वती बहन ने पूज्यश्री तथा तपस्वीजी को मेठ गोविन्दरामजी का परिचय दिया । पूज्य श्री ने उन को अहिंसा का उपदेश दिया । जिसे सुनकर वे बहुत प्रसन्न हुए । बाद में वे बोले- मैं चुनाव में खड़ा हुआ हूँ मुझे आप आशीर्वाद दें कि मैं चुनाव में सफल बनूं । तत्र पूज्यश्री ने फरमाया कि "यादृशी भवाना यस्य सिद्धिर्भवतितादृशी" पवित्र भावना का फल पवित्र ही मिलता है । स्वार्थ भावना को छोड़कर परमार्थ भाव से चुनाव में खडे हुए होंगे तो बिना मांगे ही आशीर्वाद मिल जायगा । आशीर्वाद मांगने से नहीं मिलता कार्य करने से मिलता है ।
हैदराबाद में उस समय एक लाख जनता निवास करती थी । हिन्दू कम थे और मुसलमानों की संख्या अधिक थी । मुखी गोविन्दमाजी हैदराबाद में धनी-मानी गृहस्थ थे । उनके खेती की जमीन भी बहुत थी । व्यापार ब खेती से सम्पन्न मुखी सारी प्रजा का हितैषी था । उनके हृदय में हिन्दु मुसलमान का कोई भेद नहीं था वे सभी के दर्द में हिमायती बनकर हित का काम करनेवाले थे । इस कारण हैदराबाद के सभी लोग मुखी गोविन्दरामजी को चाहते थे ।
वह दिन भी आया जिस दिन बोट पडनेवाले थे। वोटो में दोनों पक्ष बराबरी के दिखाई दे रहे थे । चुनाव परिणाम जाहिर होने के दश दिन पूर्व एक दिन दुपहर में ध्यान में मुखी गोविन्दरामजी के विजय का संकेत पूज्यश्री को मिला । और पूज्जश्री ने वह बात श्री पार्वती बहन को कही । श्री पार्वती बहन ने मुखी को जाकर कहा कि आज गुरुजो को जान में आपकी विजय का संकेत मिला है । चुनाव का परिणाम कराची से जाहिर होने वाला था। वोटों की गिनती में मुखी को सोलह हजार वोट मिले । विजय का तार मुखी को सुबह दातन करते समय मिला। तार मिलते ही जैसे बैठे थे वैसे हि मोटर में बैठकर सीधे पूज्यश्री के पास साधु टी. एल. वासवानी के आश्रम पर पहुँचे और अपने विजय के समाचार प्रसन्न मुद्रा से सुनाए और साथ में ही पूज्जश्री को अपने बाग बिराजने की विनंती की।
मुखी श्रीगोविन्दरामजी की विनती को मानदेकर वहां से विहार करके मुखी गोविन्दरामजी के बाग के बंगले में पधारे । हैद्राबाद स्टेशन के पास ही मुखीजी का बाग था । बाग में बहुत बड़ा बंगला पूज्य श्री को बिराजने के लिए खाल दिया गया । जैन मुनियों के नियमों से अज्ञात होने के कारणउन्होंने अपने मुनीम को आज्ञा दी की गुरुजी के साथ नो मुनीवर है । दो रसोइदार को बुलाओ और जीन जीन मुनि को जैसी जैसी रुचि हो वैसा भोजन सभी के लिए बनाने का कहो । जब मुखीजी के मुनीम ने आकर पूज्य अचार्य श्री से कि आप सब को एक समान ही भोजन चाहियेगा या जुदा जुदा ? पूज्य श्री ने मुनीमजी से पूछा यह क्यों पूछ रहे हो ? तब मुनीमजी ने कहा की सेठ मुखी साहेब मुझे आदेश दे गये हैं कि मुनियों को रुची के अनुसार रसोइया को बुलाकर भोजन की व्यास्था करना । इसलिये मैं पूछ रहा हूँ । पूज्य आचार्य श्री ने मुनीमजी से कहा कि - " हम जैन मुनि अहिंसक घरों से भिक्षा लाकर भोजन करते हैं । हमारे लिए पृथक रसोइया
पूछा
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