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सामान्यपद नहीं है । इस पद को पाने के बाद पद के अनुरूप बनने का दायित्वपद प्राप्त करनेवालो पर स्वयं आजाता है । जैन शास्त्रों में आचार्यपद की विशेषताओं पर अत्यन्त गहरी चर्चा है आचार्य को शास्त्रों में जिन नहीं किन्तु जिनसरीखा कह कर उसकी महत्ता का परिचय दिया है । समस्त जैन समाज के ये नेता होते हैं । इसी कारण आचार्य पद का उत्तरदायित्व बहुत बड़ा है । आचार्य के छतीस प्रकार के गुणो का शास्त्रों
उनमें धमोचार्य का स्थान उच्चतम है। धर्माचार्य पद शास्त्रोक्त विधि-विधान के जानकार एवं उनके अनुसार परम शुद्ध जीवन बनाने वाला विशिष्ठ गुणवाला व्यक्ति ही आचार्य बन सकता है । पृथ्वी के
धार पर संसार है। वैसे ही आचार्य के आधार पर जैन धर्म है। आचार्य नहीं होंगे तो जैनधर्म भी नहीं होगा। यह अनादि नियम है। में अपने आपको वैसा सामर्थ्यवान नहीं मानता हूँ। परन्तु जब आप सभी ने मिलकर मेरे जिम्मे जैन शासन सेवा का बड़ा विशाल कार्य भार सौपा है तो मैं आप सभी के सहयोग से ही जितना जो कछ हो सकेगा वह करने का प्रयत्न करूंगा। इस प्रकार आचार्यपद महोत्सव सम्मन्धी सारे कार्य हो जानेपर कराची संघ ने साधर्मी वात्सल्य' का आयोजन किया । जिसमें हजारों स्त्री पुरुषों ने भोजन किया । समारोह सम्पन्न हुआ । और सभी अपने अपने स्थान पर चले गये । मलीर से प्रस्थान:
मलीर (कराँची) से पूज्यआचार्य म. श्री घासीलालजी महाराज ने अपनी सन्त मण्डली के साथ हैदराबाद ( सिंध ) की और विहार किया । अनेक ग्रामों को पावन करते हुए आप हैदराबाद पधारे । हैदराबाद संघ ने आपका आदर्श स्वागत किया । हैदराबाद सदर के रसाला रोड स्थित सिन्धी लालचन्द एडवानी बिल्डिंग में पूज्यश्री का बिराजना हुआ । वहीं प्रतिदिन व्याख्यान होने लगे । पूज्यश्री के प्रभाव शाली व्याख्यान तथा विद्वत्ता से प्रभावित हो लालचंद एडवानी के कुटुम्ब की सुपुत्रीश्री पार्वती बहन BA ने अहिंसा धर्म स्वीकार किया । इनके घर में मांसाहार प्रचलित था । महाराजश्री के उपदेश से पार्वती बहन का अहिंसा के प्रति इतना अनुराग बढा कि वह स्वयं सर्वव्यसन को त्याग कर अहिंसा धर्म का प्रचार करने लगी । परिणाम स्वरुप उसने आस पास के सैकडों कुटुम्बों को अहिंसक बना दिया । डीगामल, गुरूदास, विष्णीमां, रुक्मणीबाई, झिम्मीबाई विष्णा डी डास्वानी के तीनों भाई तथा उनकी माता पुतली मां आदि बहुतां ने मांसाहार का सदा के लिए त्याग किया । हैदराबाद से तीन मील दूर कोटडी जाते मार्ग में एक बहुत बड़ा पागलखाना था । इसमें ५०० स्त्री पुरुष पागलों को रखा गया था । हैदराबाद संघ ने इन पागलों को भोजन देने का निर्णय किया । निर्णित दिन पूज्यश्री भी अपने मुनियों सहित वहां पधारे । वहां पागलों की अलग अलग श्रेणियां देखी । उग्र पागलों को अलग अलग कमरों के खोडों में उनके पैर फंसा रखे थे। मध्यम स्थिति के पागलों को अलग अलग कमरों में बन्द कर रखे थे । सामान्य पागलों को केदियों की तरह पागल खाने के आहते में मुक्त घूमते रहते थे। इन सामान्य पागलों को ही भोजन कराने की आज्ञा अधिकारियों ने दी थी । सामान्य पागलों में कई जक्ति ऐसे दीख रहे थे कि ये पागल नहीं है । कुछ क्षण के बाद वे पागल की तरह चित्र विचित्र हरकते करते हुए दृष्टिगोचर होते थे ।
अंग्रेज शासन के विरुद्ध विचार क्रान्ति फैलाने वाले देश भक्तों को भी पागल बता कर यहां काल कोठडी में डाल रखा था। उनके स्थानों तक किसी को भी जाने नहीं दिया जाता था।
उस समय हैदराबाद शहर में सबसे अधिक धनाढय सेठ किमनचंद पोहुमल ब्रदर्सवाले माने जाते थे । सेठ किसनचन्दजो माउन्ट आबू पर रहनेवाले चमत्कारी आचार्य श्री शान्तिविजयजी म. के शिष्य थे । इस कारण उनका सारा परिवार अहिंसक था। पूज्य श्री के बिराजने के समाचार ज्ञात होने से ये परिवार सहित प्रतिदिन पूज्य श्री के दर्शनार्थ आते और पूज्य श्री का व्याख्यान सुनते । एक दिन तत्वज्ञ सन्त
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