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अमर करने की प्रतिज्ञा ग्रहण की। गणेशकुमार ने सांप विच्छू न मारने का प्रण लिया । जामीदार के छोटे भाई ! 'मदनलालजी दरजी पोशाकवालों ने एकादशी अमावस्या पूर्णिमा जन्माष्टमो ऋषिपञ्चमी, श्राद्ध पक्ष के दिन शिकार करने का एवं इन दिनों में दारु, मांस के सेवन का त्याग कर दिया । और प्रति वर्ष एक-एक बकरा अमर करने का नियम ग्रहण किया। सायंकाल में महाराज श्री ने अपनी मुनिमण्डली के साथ विहार कर भाटोलाई गाँव के बाहर कुछ दूरी पर एक सघन वृक्ष के नीचे विश्राम किया । कृष्ण, पक्ष की अन्धेरी रात्रि थी । बियावान जंगल बडा भयानक लगता था । बनैले हिंसक जानवर की बीच बीच में भयानक आवाजें भी सुनाई देती थो । रात्रि के बारह बजे के बाद जब की महाराज श्री ध्यान मुद्रा में बैठे हुए आत्म चिन्तन कर रहे थे एक हिंसक प्राणी आकर सोए हुए सन्तों को सूंघने लगा।
और फिर ध्यानस्थ महाराजश्री की ओर क्रूर निगाह से देखने लगा। परस्पर आँखे टकराई । एक ओर तो आँखों में हिंसा का क्रूर भाव झांक रहा था तो दूसरी और प्रशम भाव । अन्त में हिंसक पशु ने रुदेव की महानता व तेजस्विता को परखा । क्रूरता समता में बदल गई । अभय अद्वेष के साधकों के समक्ष उस वन्य पशु को नत मस्तक होना पडा । महाराज श्री की प्रज्ञम रस धारा से उसकी क्रूरता का कल्मष धूल गया । उसने वन की ओर मुख मोड लिया । हिंस्र पशु के जाने के बाद महाराजश्री ने सन्तों को जगाया और सावधान रहने का संकेत किया । शान्ति से रात बीतो । प्रातः हुआ और धर्म देशना से जन जन को पावन करने के लिए महाराज श्री ने अपनी सन्त मण्डली के साथ विहार कर दिया । २६ अप्रैल को आगोलाई पहुचे ।
यहां श्रावकों के १५-१७ घर है । मुनिराजों के प्रति अत्यन्त श्रद्धावान है । दुपहर में महाराज श्री का यतिवर्य श्री तखतमलजी एवं उनके शिष्य श्री हजारीमलजी के आश्रय में सार्वजनिक प्रवचन हुआ । प्रवचन सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग एकत्रित हुए । महाराज श्री ने दया धर्म का उपदेश दिया । आपने अपना प्रवचन कबीर के इस दोहे से प्रारम्भ किया.'जहां दया तहाँ धर्म है जहां लोभ तहां पाप । जहाँ क्रोध तहां काल हैं जहां क्षमा तहां आप ॥"
इस दोहे की विशद व्याख्या करने के बाद आपने फरमाया-“दया सबसे बडा धर्म है । दया दो तरफी कृपा है । इसकी कृपा दाता पर भी होती है और पात्र पर भी । दया वह भाषा है जिसे बहरे भो सुन सकते हैं और गूंगे भी समझ सकते हैं । हम सवी ईश्वर से दया की प्रार्थना करते हैं और वही प्रार्थना हमें दूसरों पर दया करना भी सिखाती हैं । दयालु हृदय प्रसन्नता का फवारा है जो कि अपने पास की प्रत्येक वस्तु को मुस्कानों में भरकर ताजा बना देती है। सभी धर्मवालों ने दया के मह त्व को एक स्वर से स्वीकार किया है ।” महाराज श्री के इस सार पूर्ण प्रवचन का जनता पर अच्छा असर पडा । फल स्वरूप लोगों ने महाराजश्री से निम्न प्रतिज्ञाएं ग्रहण की
___सरूपचन्दजी गुलेच्छा, छोगालालजी पन्नालालजो गोगड एवं सागरमलजी गोगड ने पांच पांच बकरे प्रतिबर्ष एवं गणेशमलजी सोनी ने आजीवन प्रतिवर्ष एक एक गणेशमलजी चोपडा ने सात बकरे अमर करने की प्रतिज्ञा ग्रहण की । शेरगढ के श्रीमान् उदयसिंहजी राजपूत ने महाराजश्री से सम्यक्त्व ग्रहण किया । एवं यावज्जोवन जीवहिंसा का परित्याग किया। श्रीमान् देवराजजी ब्यास नाथावत जोधपुर के यहां जागीदार हैं । आपने महाराज श्री के उपदेश से गांव की सीमा में शिकार करने की मनाई फरमादी ... सायंकाल के समय महाराजश्रीने यहां से विहार कर दिया । मार्ग में सूर्य के अस्त होने पर एक
१ वे दरबार के यहां पोषाक बनाने का काम किया करते थे इससे जागोरो इगम में मिली थी अतः पोषाक वाले जागीरदार कहलाने लगे ।
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