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________________ १३ जिस काल में जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः हीन होते जाय आयु और अवगाहना घटते जाय तथा उत्थान कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार और पराक्रम घटते जाय वह अवसर्पिणी काल है । इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श होन होते जाते है । शुभ भाव घटते जाते हैं । और अशुभ भाव बढते जाते हैं । अवसर्पिणी काल दस कोडाकोंडी सागरोपम का होता है । __ अवसर्पिणी काल के छ विभाग हैं, जिन्हें आरे कहते है । वे इस प्रकार है -१. सुषम सुषमा २ सुषमा ३. सुषमदुषमा ४. दुषम सुषमा ५. दुषमा ६. दुषम दुषमा । १.-सुषम सुषमा-यह आरा चार कोडा कोडी सागरोपम का है । इसमें मनुष्यों की अवगाहना तीन कोस की और आयु तीन 'पल्योपम की होती है । इस आरे में पुत्र पुत्री युगल (जोडा) रूप से उत्पन्न होते हैं । बडे होकर वे ही पति पत्नी रूप से बन जाते हैं । युगल रूप से उत्पन्न होने के कारण इस आरे के मनुष्य युगलिया कहलाते हैं । माता पिता की आयु छ मास शेष रहने पर एक युगल उत्पन्न होता है। ४९ दिन तक माता-पिता उसकी प्रतिपालना करते है । आयु समाप्ति के समय माता को छीक और पिता को जंभाई (उबासी) आती है और दोनों काल कर जाते हैं। वे मरकर देवलोक में उत्पन्न होते हैं । इस आरे के मनुष्य दश प्रकारकें कल्पवक्षों से मनोवांछित सामग्री पाते हैं । तीन दिन के अन्तर से इन्हें आहार की इच्छा होती है । युगलियों के वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्त्र संस्थान होता है । इनके शरीर में २५६ पसलियां होती हैं । युगलिए असि, मसि, और कृषि कोई कर्म नहीं करते । ___इस आरे में पृथ्वी का स्वाद मिश्री आदि मधुर पदार्थों से भी अधिक स्वादिष्ट होता है । पुष्प और फलों का स्वाद चक्रवर्ती के श्रेष्ट भोजन से भी बढकर होता है । भूमी भाग अत्यन्त रमणीय होता है । और पांच वर्णवाली विविध मणियों वृक्षों और पौधों से सुशोभित होता है। सब प्रकार के सुखों से पूर्ण होने के कारण यह आरा सुषम सुषमा कहलाता है । (२) सुषमा-यह आरा तीन कोडा कोडी सागरोपम' का होता है । इषमें मनुष्यो की अवगाहना दो कोस की और आयु दो पल्योपमकी होती है । पहले आरे के समान इस आरे में भी युगल धर्म रहता है पहले आरे के युगलिशों से इस आरे के युगलियों में इतना अंतर होता है कि इनके शरीर में १२८ पसलियाँ होती हैं । माता पिता बच्चों का ६४ दिन तक पालन पोषण करते है । दो दीनके अन्तर से आहार की इच्छा होती है । यह आरा भो सुख पूर्ण है । शेष सारी बाते स्थूल रुप से पहले आरे जैसी जाननी चाहिए । अवसर्पिणी काल होने के कारण इस आरे में पहले की अपेक्षा सब बातों में क्रमशः हीनता होती जाती। ३ सुषम दुषमा-सुषम दुषमा नामक तीसरा आरा दो कोडा कोडी सागरोंपम का होता है । इसमें दूसरे आरे की तरह सुख है परन्तु साथ में दुःख भी है । इस आगरे के तीन भाग हैं । प्रथम दो भागों में मनुष्यों की अवगाहना एक कोस की और स्थिति एक पल्योपम की होती है । इनमें भी युगलिये उत्पन्न होते हैं जिनके ६४ पसलियां होती है । माता पिता ७९ दिन तक बच्चों का पालन पोषण करते हैं । एक दिन के अन्तर से आहारकी इच्छा होती है । पहले दूसरे आरों के युगलियों की तरह ये भी छींक और जंभाई के आने पर काल कर जाते हैं । और देवलोक में उत्पन्न होते हैं । शेष विस्तार स्थूल रूप से पहले दूसरे आरे जैसा जानना चाहिए । सुषभ दुषभा आरे के तीसरे भाग में छहों संहनन और छहों संस्थान होते हैं । अवगाहना हजार १-पल्योपम-पल्य अर्थान् क्प की उपमा से गिना जानेवाला काल पल्योपम कहलाता है । २ सागरोपम-दस कोडा कोडी पल्योपम के काल को एक सागरोपम कहते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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