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________________ १२ अन्न उत्पन्न करने की कला सिखाई, जिसके पश्चात् वाणिज्य, शिल्प आदि वे सब कलाएँ व उद्योग धन्धे उतपन्न हुए जिसके कारण यह भूमि कर्म भूमि कहलाने लगी। चौदह कुलकरों के पश्चात् जिन महापुरुषों ने कर्मभूमि की सभ्यता के युग में धर्मोपदेश व अपने चारित्रद्वारा अच्छे बुरे का भेद सिखाया ऐसे त्रेसट महापुरुष हुए जो शलाका पुरुष अर्थात् विशेष गणनीय पुरुषमाने गये हैं । इन त्रेसठ शलाका पुरुषों में चौबीस तीर्थकर, बाहर चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव और नौ प्रति वासुदेव सम्मिलित है । इन त्रेसठ शलाका पुरुषों में सब से प्रथम आदि तीर्थङ्कर भगवान् श्रीऋषभदेव हैं । जिनसे इस अबसर्पिणि में जैनधर्म का प्रारंभ माना जाता है । उनका जन्म उक्त चौदह कुलकरों में से अन्तिम कुलकर नाभिराजा और उनकी पत्नी मरुदेवी से हुआ था । अपने पिता के मृत्यु के पश्चात् वे राजसिंहासन पर बैठे और उन्होंने कृषि, असि मसि, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन छ आजीवका के साधनों की विशेष रुप से व्यवस्था की। तथा देश व नगरों वर्ण व जातियों आदि का विभाजन किया । इनके सौ पुत्र जिनमें भरत बाहुबलि मुख्य थे तथा दो पुत्रियाँ ब्राह्मी और सुन्दरी थीं । जिन्हें उन्होंने समस्त कलाएँ गणित ब विद्याएँ एवं सर्व प्रकार की लिपियाँ सिखलाई । श्रीऋषभदेव को संसार से वैराग्य हो गया और वे राज्य का परित्याग कर तपस्या कर बनको चले गये । उनके जेष्ट पुत्र भरत राजा हुए और उन्होंने अपने दिगविजय द्वारा सर्वप्रथम चक्रवर्ती पद प्राप्त किया । उनके लघुभ्राता बाहुबलि भी विरक्त होकर तपस्या में प्रवृत्त हो गये । जैन ग्रन्थों में ऋषभदेव के जीवन व तपस्या का तथा केवलज्ञान प्राप्त कर धर्मोपदेश का विस्तृत वर्णन पाया जाता है । जैनी इसी काल से अपगे धर्म की उत्पत्ति मानते हैं । भगवान ऋषभदेव के काल का अनुमान लगाना कठीन है । उनके काल की दूरी का वर्णन जैन ग्रन्थ सागरोंपम के प्रमाण से करते हैं । जैन ग्रन्थों में भगवान श्रीऋषभदेव का विस्तृत वर्णन मिलता है पाठकों की जानकारी के लिए उसे संक्षिप्त में दे रहे हैंकालचक्र काल की उपमा चक्र से दी जाती है। जैसे गाडी का चक्र (पहिया) घूमा करता है । वैसे ही काल भी सदा घूमता रहता है । वह कभी भी एक सा नहीं रहता । काल का स्वभाव ही परिवर्तन शील है। उत्कर्ष और कपकर्ष ये दोनों सापेक्ष हैं। जहां उन्नति है वहां अवनति भी है जहाँ अवनति है वहाँ उन्नति भी है । जो उठता है वह गिरता भी है । और जो गिरता है वह उठता भी है। घूमते समय चक्केका जो भाग उच्चा उठता है वह नीचे भी जाता है और उपर भी आता है । यही इस संसार की दशा है । एक बार वह उन्नत से अवनति की ओर जाता तो दूसरी बार अवनति से उन्नति की ओर जाता है जिस काल में यह विश्व अवनति से उन्नत की ओर जाता है उसे उत्सर्पिणी काल कहते हैं । इस काल में सहनन संस्थान, आयु, अवगाहना, उत्थान, बल, वीर्य कर्म, पुरुषाकार और पराक्रम बढते जाते हैं अतः इस काल को उत्सर्पिणी काल कहते हैं। इसके छह भेद है १. दुषम दुषमा २. दुषमा ३. दुषम सुषमा ४. सुषम दुषमा ५. सुषमा ६. और सुषम सुषमा। इस काल में जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः अधिकाधिक शुभ होते जाते हैं । आयु और अवगाहना बढती जाती है । तथा जीवों की तरह सर्व पुद्गलों के वर्ण गन्ध, रस स्पर्श, भी इस काल में क्रमशः शुभ होते जाते हैं । अशुभतम भाव शुभतर होते हुए शुभतम हो जाते है । और ह्रास से उत्तरोत्तर वृद्धि की अवस्था को प्राप्त होते जाते है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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