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पार्श्वनाथ के चार याम इस प्रकार थे (१) सर्व प्राणातिपात से विरमण (२) सर्व मृषावाद से विरमण (३) सर्व अदत्तादान से विरमण (४) सर्व बहिद्धादान (परिग्रह) से विरमण ! श्रीपार्श्वनाथ का चतुर्याम रूप सामायिक धर्म श्रीमहावीर से पूर्व ही सुप्रचलित था यह जैन परम्परा के अतिरिक्त बौद्ध पालि साहित्य गत उल्लेखों से भली भांति सिद्ध हो जाता है । बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय आगम के चतुक्कनिपात और उनकी अटकथा में उल्लेख है कि गौतम बुद्ध का चाचा 'बप्प' शाक्य निर्ग्रन्थ श्रावक था । स्वयं बुद्धने बोधी प्राप्त करने के पूर्व पार्श्व परम्परा के निर्ग्रन्थों के समीप दीक्षा ग्रहण की थी और निर्ग्रन्थ आचार का पालन किया था जिसका उल्लेख मज्झिमनिकाय में बुद्ध स्वयं करते हैं । पार्थापत्यों तथा निर्ग्रन्थ श्रावकों के इसी प्रकार के और भी अनेक उल्लेख मिलते हैं । जिनसे निर्ग्रन्थ धर्म की सत्ता बुद्ध से पूर्व भली भांति सिद्ध हो जाती है ।
एक समय था जब श्रीपार्श्वनाथ तथा उनसे पूर्व के जैन तीर्थंकरों व जैन धर्म को उस काल में सत्ता को पाश्चात्य विद्वान स्वीकार नहीं करते थे । किन्तु जब जर्मन विद्वान हर्मनयाकोबी ने जैन और बौद्ध प्राचीन साहित्य के सूक्ष्म अध्ययन द्वारा श्रीमहावीर से पूर्व निर्ग्रन्थ संप्रदाय के अस्थित्व को सिद्ध किया है। तब से विद्वान श्रीपार्श्वनाथ की ऐतिहासिकता को स्वीकार करने लगे हैं और उनके महावीर निर्वाण से २५० वर्ष पूर्व निर्वाण प्राप्ति की जैन परम्परा को भी मान देने लगे हैं । बौद्ध ग्रन्थों में जो निर्ग्रन्थों के चातुर्याम का उल्लेख मिलता है वह और उसे निग्रन्थ क्षातपत्र भ. श्रीमहावीर का धर्म कहा है, उनका सम्बन्ध आवश्यक ही श्रीपार्श्वनाथ की परम्परा से होना चाहिये । क्यों कि जैन संप्रदाय में उनके साथ ही चातुर्याम का उल्लेख पाया जाता है, महावीर के साथ कदापि नहीं । जैन धर्म की दृष्टि में प्राचीन इतिहास
भारत का इतिहास देश की उस काल की अवस्था के वर्णन से प्रारंभ होता है, जब आधुनिक नागरिक सभ्यता का निकास नहीं हुआ था । उस समय भूमि घास और सुन्दर सघन वृक्षों से भरी हुई थी । सिंह व्याघ्र, हांथी गाय भैंस, आदि सभी पशु वनों में पाये जाते थे । मनुष्य ग्राम व नगरों में नहीं बसते थे,
और कौटुम्बिक व्यवस्था भी कुछ नहीं थी । उस समय न लोग खेती करना जानते थे, न पशुपालन, न अन्य कोई उद्योग धन्धे । वे अपने खान, पान, शरीराच्छदन आदि की आवश्यकताएँ कल्पवृक्षों से ही पूरी र लेते थे । इसीलिए उस काल के वृक्षों को कल्प वृक्ष (देववृक्ष) कहा गया है । कल्पवृक्ष अर्थात् ऐसे वृक्ष जो मनुष्यों की सब इच्छाओं की पूर्ति कर सके । भाई बहन ही पति पत्नी रूप से रहने लगते थे,
और माता-पिता अपने उपर सन्तान का कोई उत्तर दायित्व अनुभव नहीं करते थे । इस काल में धर्मसाधना, पुण्य पाप की भावना आदि कोई विचार विवेक नहीं थे । इस परिस्थिति को शास्त्रकारों ने भोग भूमि-व्यवस्था कहा है, क्योंकि उसमें आगे आनेवाली कर्म भूमि सम्बन्धी कृषि और उद्योग आदि की व्यवस्थाओं का अभाव था ।
क्रमशः उक्त अवस्था में परिवर्तन हुआ, और उस युग का प्रारंभ हुआ जिसे शास्त्रकारों ने कर्म-भूमि का युग कहा है, व जिसे हम आधुनिक सभ्यता का प्रारंभ कह सकते हैं । इस युग को विकास में लानेवाले चौदह महापुरुष माने गये हैं । जिन्हें 'कुलकर' या 'मनु' कहा है । इन्होंने क्रमशः अपने अपने काल में लोगों को हिंसक पशुओं से अपनी रक्षा करने के उपाय बताये । भूमि और वृक्षों के वैयक्तिक स्वामित्व की सीमाएँ निर्धारित की । हाथी अश्व आदि वन पशुओं का पालन कर, उन्हें वाहन के उपयोग में लाना सिखाया । बाल बच्चों के लालन पालन व उनके नामकरण आदि का उपदेश दिया । शीत, तुषार आदि से अपनी रक्षा अरना सिखायां । नदियों को नौकाओं द्वारा पार करना आदि सिखाया । पहाड़ों पर सिढियाँ बनाकर चडना, वर्षा से छत्रादि धारण कर अपनी रक्षा करना सिखाया । और अन्त में कृषिद्वारा
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