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________________ १० श्रीतीर्थंकर नमिनाथ ___ वेदकालीन आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ के पश्चात् जैन ग्रन्थों में जो अन्य तेईस तीर्थंकरों के नाम आते हैं व जीवन वृत्त मिलते हैं, उनमें बहुतों के तुलनात्मक अध्ययन के साधनों का अभाव है । तथापि अन्तिम चार तीर्थंकरों की ऐतिहासिक सत्ता के थोडे बहत प्रमाण यहाँ उल्लेखनीय है । इक्कीसवे तीर्थकर नमिनाथ थे । नमि मिथिला के राजा थे । और उन्हें हिन्दू पुराण में भी जनक के पूर्वज माना गया है । नमि की प्रव्रज्या का एक सुन्दर वर्णन हमें उत्तराध्ययन सूत्र के नौवे अध्ययन में मिलता है और यहाँ उन्हीं के द्वारा वे वाक्य कहे गये हैं, जो वैदिक और बौद्ध परम्परा के संस्कृत व पालि साहित्य में गूंजते हुए पाये जाते हैं, तथा जो भारतीय अध्यात्म सम्बन्धी निस्काम कर्म व अनासक्ति भावना के प्रकाशन के लिए सर्वोत्कृष्ट वचन २ प से जहाँ तहाँ उद्धत किये जाते हैं वे वचन है सहं वसामो जीवामो जेसि मे नत्थि किंचण । मिहिलाए डज्झमाणीए ण मे डज्झइ किंचण ॥ (उत्त. ९ १४) सुसुख बत जीवाम येसं मे नो नस्थि किंचनं । मिथिलाए दहमानाए न मे किंचि अदयहथ ॥ (पालि महाजन जातक) मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किंचिन दह्यते । (शान्ति पर्व महा० भा०) ' नमि की यह अनासक्त वृत्ति मिथिला राजवंश में जनक तक पाइ जाती हैं । प्रतीत होता है कि जनक के-कुलकी इसी आध्यात्मिक परम्परा के कारण वह वंश तथा उनका समस्त प्रदेश ही विदेह (देह से निर्मोह जीवन्मुक्त) कहलाया और उनकी अहिंसात्मक वत्ति के कारण ही उनका धनुषः हीन रूप में उनके क्षत्रियत्व का प्रतीकमात्र सुरक्षित रहा । संभवतः यही वह जीर्ण धनुष्य था जि ने चढाया और तोंड डाला । इस प्रसंग में व्रात्यों के 'ज्याहृद' शस्त्र के सम्बन्ध में ऊपर कह आये वह बात भी ध्यान देने योग्य है। तीर्थङ्कर श्रीनेमिनाथ- तत् पश्चात् महाभारत काल में बावीसवें तीर्थंकर श्रीनेमिनाथ हुए । महाभारत का काल ई. पू.-१००० क लगभग माना जाता है । अतएव ऐतिहासीक दृष्टि से यही काल श्रीनेमिनाथ तीर्थकर का मानना उचित प्रतीत होता है । यहाँ प्रसंग वश यह भी ध्यान देने योग्य है कि महाभारत के शान्तिपर्व में जो भगवान् तीर्थवित् और उनके द्वारा दिये गये उपदेश का वृत्तांत मिलता है वह जैन तीर्थकर द्वारा उपदिष्ट धर्म के समरूप है । तीर्थङ्कर श्रीपार्श्वनाथ- तेइसवें तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथ का जन्म बनारस के राजा अश्वसेन और उनकी रानी वामा से हुआ था । उन्होंने तीस वर्ष की अवस्था में गृह त्याग कर सम्मेत शिखर पर्वत पर तपस्या की । यह पर्वत आजतक भी पारसनाथ पर्वत के नाम से प्रसिद्ध है । उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्तकर सत्तर वर्ष तक श्रमणधर्म का उपदेश और प्रचार किया । जैन ग्रन्थानुसार उनका निर्वाण भगवान श्रीमहावीर के निर्वाण से २५० वर्ष पूर्व और तदनुसार ई० पूर्व ५२७+२५०=७७७ वर्ष में हुआ था । श्रीपार्श्वनाथ का श्रमण परम्परा पर बड़ा गहरा प्रभाव पडा । जिसके परिणामस्वरूप आजतक भी जैन समाज प्रायः पार्श्वनाथ के अनुयाईयों की मानी जाती है । ऋषभनाथ की सर्वस्व परित्याग रूप अकिंचनमुनिवृत्ति, नमि की निरीहता व नेमिनाथ की अहिंसा को उन्होंने अपने चातुर्यांम रूप सामायिक धर्म मे व्यवस्थित किया । चातुर्याम का उल्लेख निर्ग्रन्थों के सम्बन्ध में पालि साहित्य में भी मिलता है । और जैन आगमों में भी । जैन आगमानुसार त्र के सम्बन्ध में ऊपर कह आये है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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