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________________ २४४ निरुपाय होकर उदयपुर के श्रीसंघ की सम्मप्ति प्राप्त करने के पश्चात् मैं श्रीसंघ के सामने यह घोषणा करता हूं कि (१) आज से घासीलालजी मेरी आज्ञा और संप्रदाय के बाहर हैं । इसलिए पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज की संप्रदाय के समस्त सन्त इनसे सम्भोग आदि कोई भी व्यवहार न करें । इस संप्रदाय के साथ सम्बन्ध रखनेवाले सन्त सतियाँ भी घासीलालजी से वन्दन-सत्कार आदि परिचयन करें। (२) घासीलालजी के पास रहे हुए मनोहरलालजो सुन्दरलालजी, समीरमलजो आदि भी शीघ्र मेरे पास चले आवें । उनके पास रहने की मेरी आज्ञा नहीं है । मेरी आज्ञाको न मानकर उन्हीं के पास रहनेवाले मेरी आज्ञा के बाहर समझे जावेंगे । (३) चतुर्विध श्रीसंघ का भी यह कर्तव्य है कि जैन प्रकाश ता० ७-५-३३ के पृष्ठ ४५८ में प्रकाशित ठहराव नं. ४ साधु सम्मेलन द्वारा निर्णीत नियमों के उपयोगी सार की कलम नं० २५ के अनुसार इनके साथ वर्ताव करेंगे। पुनश्च-यदि घासीलालजी अपने आजपर्यंत के कृत्यों की प्रायश्चित विधि से शुद्धि तथा संप्रदाय में शामिल होना चाहें तो नियमपूर्वक संप्रदाय में शामिल करने को मैं हर समय तैयार हूं ? उदयपुर मेवाड ता० ४-१०-१९३३ कार्तिक कृष्णा १, सं० १९९० पूज्य श्री जवाहिरलालजी म. की घोषणा के अनुसार कोन्फरन्स के प्रेसीडेन्ट की ओर से नीचे लिखी सूचना प्रकाशित हुई । _ आवश्यक सूचना-पूज्य श्री जवाहिरलालजी म. साहेब ने अपने शिष्य घासीलालजी महाराज को अपनी संप्रदाय और आज्ञा के विरुद्ध कार्यकरने के कारण अपनी आज्ञा के बिना जहाँ चाहे चातुर्मास करने से, अपनी आज्ञा के बिना दीक्षा देने से श्री साधु सम्मेलन के नियम जैसे-धोवन पानी की तपस्या को अनशन के नाम से प्रसिद्ध न करना पक्खी, चौमासी, और संवत्सरी के दिन ठहराई हुइ लोगस्स की संख्या, पाँच साधु से अधिक एक ही जगह चातुर्मास न करना-आदि के भंग करने से श्री साधु सम्मेलन के प्रस्ताव नं. ४ के अनुसार (देखो जैन प्रकाश ता० ७-५-३३ पृ. ४५८) हुक्मीचन्दजी महाराज साहेब की संप्रदाय और आज्ञा के बाहर आसोजवदी (मारवाडी कार्तीक वदी १) से कर दिया है। ऐसी खबर श्री साधुमागी जैन पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज के संप्रदाय के हितेच्छु श्रावकमण्डल रतलाम कि जिसके प्रेसिडेन्ट श्री वर्धमानजी पितलियाजी साहेब है । उनकी तरफ से तथा उदयपुर श्रीसंघ की तरफ से लिखकर भेजा गया है । जिसके उपर से यह खबर हिन्द के स्थानकवासी जैन के श्री चतुर्विध-संघ को दी जाती है, जिससे कि साधु सम्मेलन कान्फरन्स के धारा धोरण के अनुसार व्यवहार किया जा सके । हेमचन्द रामजी भाई मेहता प्रमुख श्री श्वे० स्था० जैन कान्फरेन्स पूज्य जवाहरलालजी महाराज सा. की एवं कोन्फरन्स के द्वारा उपरोक्त घोषणा को पढ़कर पं. श्री घासीलालजी म. सा. को एवं उनके साथि-मुनियों के मन में पूज्यश्री जवाहरलालजी महाराज की इस पक्षपात पूर्ण अविचारो कदम से अत्यन्त दुःख हुआ । सदोषी साधुओं को तो दण्ड देना दूर रहा किन्तु उनके दोषों का बचाव कर उनका पक्षपात करना तो दोषी को प्रोत्साहन देने के बराबर हि है । पं. श्री घासीलालजी म. सा. एवं उनके साथि मुनियों में तथा श्रावकों ने पूज्य जवाहरलालजी महाराज की इस पक्षपात पूर्ण नीति का उत्तर देना उचित समझा। उस समय कोन्फरन्स ने एवं पूज्य श्री ने जो घोषणा की उसके उत्तर की प्रतिलिपि पाठकों के समक्ष उपस्थित है । वह इस प्रकार है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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