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________________ २४२ राज को एवं उनके साथ रहनेवाले अन्य साधुओंको संघ से बहिष्कृत करने का कार्तिक कृष्णा १ बुधवार ता. ४ अक्टूवर १९३३ को उदयपुर में श्री संघ के सामने घोषणा पत्र जारी किया । जिसकी प्रतिलिपि इस प्रकार थीघोषणा पत्रः-- मेरे शिष्य घासीलालजी तरावलीगढ वाले [जिन का चातुर्मास इस वर्ष सेमल ग्राम में हैं] ने कई वर्षों से संप्रदाय तथा मेरी आज्ञा के विरुद्ध अनेक प्रकार के कार्य आरंभ कर दिये थे । तथापि मैं उन्हें निभाता ही रहा । लेकिन दो वर्ष से तो वे चातुर्मास भी मेरी आज्ञा के विना करने लगे हैं और बिना आज्ञा ही दीक्षा जैसे बडे बडे विरुद्ध कार्य भी उन्होंने कर डाले हैं । फिर भी मैंने उनको समझा बुझाकर प्रायश्चित विधि से शुद्ध करने के लिहाज से सम्भोग से पृथक नहीं किया। मैंने बाबरा गांव (मारवाड से छोटे गुब्बूलालजो तथा मोहनलालजी इन दोनों सन्तों को लेखित पत्र देकर मेवाड में भेजा और घासीलालजी को साधु सम्मेलन के समय अजमेर आने के लिए सूचना दो। परन्तु घासीलालजी ने मेरी आज्ञा का उल्लंघन किया और वे अजमेर नहीं आये । केवल मनोहरलालजो व तपस्वी सुन्दरलालजी, जिनको मैंने कुछ ही समय घासीलालजी के पास रहने की आज्ञा दी थी । वो नव दीक्षित मंगलचंदजी को साथ लेकर साधु सम्मेलन के मौके पर अजमेर में मुझ से मिले। इन दोनों सन्तों ने उस पत्र पर हस्ताक्षर भी किए जिस पत्र में संप्रदाय के सन्तों ने मुझे यह लिखकर दिया था कि अजमेर साधु सम्मेलन में आप जो कुछ करेंगे वह हम सब को स्वीकार होगा । अजमेर में पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज की दोनों संप्रदायों को एक करने के विषय में पंच (सन्तों) ने भविष्य विषयक जो फैसला दिया था, उस फैसले को स्वीकार करना या नहीं इस विषय में मैने मुझ सहित उपस्थित ४२ सन्तों से पृथक् पृथक राय ली तो सब ने यही सम्मति दी कि फैसला स्वीकार कर लेना चाहिये। उस समय मनोहरलालजी एवं तपस्वी सुन्दरलालजी ने भी सब सन्तों के समान फैसला स्वीकार कर लेने की ही राय दी थी । तब मैने पंचों का दिया हुआ भविष्य विषयक फैसला स्वीकार कर लिया और पूज्य श्री मन्नालालजी महाराज के साथ ही फैसले की स्वीकृति के हस्ताक्षर किये तथा परस्पर सम्भोग किया पश्चात मेवाड के भूतपूर्व दीवान श्री कोठारीजी सा० बलवन्तसिंहजी के द्वारा मेवाड में मुझ से मिलने का वायदा करके मनोहरलालजी और सुन्दरलालजी विहार कर गये लेकिन मैं जब मेवाड में पहुंचा तो सुन्दरलालजी मेरे पास नहीं आये । वे देलवाडा ही रह गये । घासीलालजी, मनोहरलालजी. तथा कनैयालालजी, मुझ से मावली गांव में मिले। भावली में उदयपुर के नगर सेठ नन्दलालजी और मेवाड के भूतपूर्व दिवान कोठारी बलवन्तसिंहजी सरीखे समाज-हितैषी श्रावकों ने और मैने घासीलालजी तथा मनोहरलालजी को संप्रदाय के नियमानुसार वर्ताव करने के लिये बहुत समझाया । परन्तु उन्होंने सम्मेलन के प्रस्ताव तथा कोन्फरन्स द्वारा स्वीकृत पंचों के फैसले को भी मानने से इन्कार कर दिया । कई बार पूछने पर भी उन्होंने मेरे सामने ऐसी कोई बात नहीं रखी जो विचारणीय हो । बल्कि मैंने उनके सामने कइ ऐसी बातें रखी जो न्यायानुसार उन्हें अवश्य स्वीकार कर लेनी चाहिए थी । परन्तु उन्होंने एक भी बात स्वीकार नहीं की। तब मेरा विचार उसी समय उन्हें संप्रदाय एवं मेरी आज्ञा से बाहर घोषित करने का था । परन्तु कोठारीजी तथा नगर सेठ साहब की प्राथना से मैंने वह विचार कुछ दिन के लिए स्थगित रखा । आखिर घासीलालजी मुझ से चोमासे की आज्ञा मांगे बिना ही मावली से चले गये । मैं उदयपुर आया । उदयपुर से सूरजमलजी तथा मोतीलालजो (मलकापुर वाले) इन दोनों सन्तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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