________________
२४१
सिंहजी मेहता, सतारा के सेठ श्री मोतीलालजो मूथा, बम्बई के सेठ श्री अमृतलालजी रायचन्दजी जौहरी आदि अनेक शहरों के प्रतिष्ठित सज्जनों ने महाराज श्री के दर्शन किये । सेमल संघ ने इनका अच्छा आतिथ्य किया । सेमल एक ऐतिहासिक स्थल है। इस गांव के समीप में ही एक कुण्ड और गुफा है। इस कुण्ड में बार ही मास पानी झरता रहता है । वहां दिन में दुपहर को मन्दिर की पूजा प्रक्षालन झालर, घंठारव आदि की स्वयं अदृश्य आवाज सुनाई देती है ।
एक पहाडी पर पत्थर की चट्टान ऊंची जाकर पृथ्वी पर छत की तरह फैली हुई है । उस पत्थर की छत में से एक-एक बून्द पानी का गिरता है । वहां कोई जलाशय नहीं है । ये दोनों स्थान दर्शक के लिए आश्चर्य कारी है।
सेमल से चार मील दूर राणा प्रताप के चेटक घोडे की छत्री है और पास ही में हल्दिघाटी का ऐतिहासिक स्थान है। यहां प्राकृतिक पानी के झरने बहुत हैं । इसी झरनों के पानी से बहुत सी कृषि होती है । प्राकृतिक सौंदर्य से ओत प्रोत यह स्थान अत्यन्त चित्ताकर्षक है । चारों ओर पहाड होने से वर्षा काल का समय बडा आनन्द प्रद लगता है । सर्वत्र हरियाली मन को भी हरा भरा बना देती है।
चातुर्मास धार्मीक प्रभावना के साथ सम्पन्न हुआ । सेमल के चातुर्मास का प्रभाव समस्त जैन संघ पर पडा । चतुर्विध संघ के गगनांगण में संयम तप, त्याग एवं विद्वत्ता की किरणों से प्रकाशन पं. श्री घासीलालजी महाराज का यश सर्वत्र फैलने लगा। अब आप केवल जैन समाज के हो नहीं अपितु भारत की महान विभूति बन गये । प्रखर तत्त्ववेत्ता, कुशल उपदेशक, प्रकाण्ड पण्डित. षोडषभाषा विशारद, महानत्यागी और कठोर संयमी जीवन के कारण उस समय के मुनिराजों में आपका परम आदरणीय स्थान बन गया था। साधारण जन से लेकर तत्कालीन राजा महाराजा, राणा, महाराणा, ठाकुर एवं राज मान्य अधिकारी वर्ग आपके प्रवचन से अत्यन्त प्रभावित थे । आपकी प्रसिद्धि अपनी चरमसीमा पर
के प्रवचन केवल जैन समाज तक ही सीमित नहीं थे बल्कि सभी जाति वर्ग एवं धर्मवालों के लिए उपयोगी होते थे । आप अपनी संप्रदाय में भी उच्चस्थान रखते थे। संप्रदाय का त्याग
उस समय आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज का चातुर्मास उदयपुर में ही था । श्री गणेशीलालजी महाराज को युवाचार्य बनाने के बाद दोनों गुरु शिष्य का संघर्ष अपनी चरमसीमा पर था । कुछ श्रावक वर्ग भी इस संघर्ष की ज्वाला को जलती रखने का प्रयत्न करने लगे । आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज से पं. श्री घासीलालजी महाराज का संप्रदाय के दोषित साधुओं की शुद्धि करण विषयक लम्बा पत्र व्यवहार एवं श्रावकों के जरिये विचारों का आदान प्रदान होता रहा । दोनों में मतभेद की खाई चौडी होती गई। पंडित प्रवर श्री घासीलालजी महाराज ने पूज्य आचार्य श्री जवाहरलाल जी महाराज को स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि जब तक मूलवत के दोषी साधु को प्रायश्चित देकर शुद्ध न करलेंगे तब तक मैं आपकी आज्ञा में चलने के लिए बाध्य नही हूँ । शास्त्रकार की यह ओज्ञा है कि शिथिलाचारी एवं दोषी साधु के साथ संभोग रखनेवाला साधु भी दोषी हो होता है। मैं धर्म, शास्त्र एवं भगवान महावीर के शासन की वफादरी को अधिक महत्व देता हूं । यदि हमारे आदर्श नेता संघ के नायक भी अपने बनाये हुए नियमों के वफादार नहीं रहेंगे तो वे अपने शिष्यों के समक्ष क्या आदर्श उपस्थित कर सकेंगे ?
पं. प्रवर श्री घासोलालजी महाराज की इस स्पष्टोक्ति का असर आचार्य प्रवर श्री जवाहरलालजी महाराज पर उलटा ही पडा । उन्होंने बिना कुछ लम्बा विचार किये तत्काल पं प्रवर श्री घासीलालजी महा
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org