SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 256
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૨૩૭ रूपयों को रखने को तैयार नहीं थे। इसी बात को लेकर परस्पर बडा विवाद चल रहा था, तब पं. मुनिश्री घासीलालजी महाराजने उनको सुझाव दिया कि किन्हीं योग्यसाधु साध्वी का चातुर्मासु करालो तो इस विवाद का प्रश्न ही नही रहेगा "न बांस होगा न बांसुरी बजेगी” मुनिश्री की बात सुनते ही गांव के सभी पंच बोले कि हमारे इस छोटेसे पहाडी क्षेत्र में कौन चातुर्मास करेगा । हम किसे जाकर विनंती करें आपही हमारे यहां चातुर्मास बिराजों, हमारी विनती को स्वीकार करो। संघ ने चातुर्मास का अत्याग्रह किया । महाराजश्रोने फरमाया-चातुर्मास के लिए अभी काफी समय है । चातुर्मास काल जब नजदीक रहेगा और हमारा विचरना भी आसपास के क्षेत्र में रहेगा उस समय विचार किया जायगा । आप अपनी भावना यथावत् रखें । महाराजश्री के इस कथन से सभी को किञ्चित् आशा बन्ध गई कि निरन्तर प्रयत्न करते रहने से हमारी आशा अवश्य पूरी होगी । इस प्रकार सेमल शेष काल तक बिराजे । आपके बिराजने से बडा उपकार हुआ पं. मुनि श्री घासीलालजी महाराज सा, ने सेमल से विहार कर मचीन्द पधारे । मचीन्द के पास ही तीन मील दूरी पर एक बहुत बडा पहाड है। जिसके अन्तराल में महाराणा प्रताप के समय के पहले बहुत बडा सुन्दर शहर बसा हुआ था । जो मुसलिम आक्रमण के समय उजाड दिया गया था । यहां महाराणा प्रताप एकान्तवास में रहे थे । अन्नाभाव में पहाड के शिखर पर स्थित उम्बर के फल खाकर दिन काटते थे। यहां मुनिश्री पधारे और "जिनवर जिनवर जिनवर जिनवर, जिनवर ध्यान लगावे" इस प्रकार की प्रभाती स्तुति बनाई । इसी पहाड की कन्धरा में महाराणा प्रताप की महारानी ने पुत्र को जन्म दिया था तब एक चट्टान पर कुंकुम केशर का साथिया किया । वह अभीतक भी ज्यों का त्यों वहां अंकित है ! वहीं पानी का झरना तथा प्राकृतिक गुलाब के पौधे जानेवालों के मन को प्रमुदित करते हुए भूतकालीन इतिहास की साक्षी देते हैं ।। चातुर्मास के पहले मुनिश्रीजी तथा तपस्वीजी महाराज के उपदेश के प्रभाव से खमनोर, सलोदा, वाटी, कदमाल, आदि गांवों के देवों तथा भैरुजी के मन्दिर पर कहीं पाडा तो कहीं बकरा प्रतिवर्ष नवरात्रि पर मरनेवाले प्राणियों में से अमर करके छोड देने की स्वीकृति एवं पट्टे भी प्राप्त किये थे । __ खमनोर के पास मानजी महाराज की खेडी नामका गांव है । जहां मेवाड के प्रसिद्ध महान सन्त परम प्रभाविक आचार्य म. मानमलजी म. विहार करते हुवे उस गांव के मार्ग से अन्यत्र पधार रहे थे । रास्ते में वर्षा आजाने से भैरु के मन्दिर में वर्षों से बचने को ठहर गये । गांववालों को जैन साधु प्रति बडी घृणा थी, उनको बरसते पानी में मन्दिर से बाहर जाने की आज्ञा दी । मानजी स्वामी ने गांव वालों को शिक्षा देना उचित समझा ताकि भविष्य में वे जैन साधु के प्रति उचित व्यवहार करना सीखे । तपस्वी मानजीस्वामो ने भेरूजी को कहा-भरुजी चलो । हभ और तुम दोनों यहां से चले। क लोग हमें यहां ठहरने नहीं देतें । इतना कहते ही भैरुजी की मूर्ति मानजी महाराज के साथ चलने लगी । भैरुजी की मूर्ति को चलो देख लोग बडे आश्चर्य चकित हुए। उन्होंने सोचा सन्त बडे चमत्कारी हैं नाराज करने का परिणाम अच्छा नहीं निकलेगा । चमत्कार को नमस्कार की उक्ति के अनुसार लोग मुनिजी के चरणों में गिरे और बोले ! महाराज साहब हम से वडी भूल हो गई हैं । मांफ करिये । भविष्य में हम कभी भी जैनमुनिको परेशान नहीं करेंगे । मुनिजी ने कहा-तुम लोग प्रतिवर्ष भैरुजी के नाम पर बकरों का बलिदान करते हो। आज से यह प्रतिज्ञा करो कि हम भैरुजी के नाम पर एक भी जीव नहीं मारेंगे तो हम यहां रहेंगे वरना हम और भैरुजी यहां से चल देते हैं । लोगोंने कहा अगर भैरुजी बलि नहीं चाहते हैं तो हम जीवहिंसा नहीं करेंगे । महाराजश्री के सामने एवं भैरुजी की मूर्ति को छूकर प्रतिज्ञा की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy