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________________ २३५ संवत १९८९ फागन सुद ९ आदित्यवार ग्राम बावरा . . "श्री' घासीलालजी को साता बांच कर नीचे लिखि सूचना ध्यान में लें। १-चरु में जो ठहराव हुआ है वह ज्यों का त्यों कायम रहा है उसमें फेरदार नहीं हो सकता । २-सम्मेलन में जाने के लिए मैने मोडीलालजी चान्दमलजी, हर्षचन्दजी, घासीलालजी, (चरित्रनायक) पन्नालालजी, इन पांच सन्तो को नियत किये थे परन्तु सन्तों ने उपरोक्त बात नहीं स्वीकार की और सम्मेलन में संप्रदाय कि तरफ से जाने के लिए मुझे हो नियत किया है । मैं सम्मेलन में जो कुछ करूंगा वह सारे संप्रदाय के साधुओं को बे उजर मंजूर रहेगा उसे पालन करने के लिए सारे सन्तों ने दस्तखत किये हैं। ३ उग्रसिंहजी मास्टर ने आकर जो कुछ मुझे सुनाया है मैं उसमें बाध्य नही हो सकता । क्योंकि मैं गुरु हूँ और तुम शिष्य हो । ४ उपर की सारी हकीकत प्रेम पूर्वक अच्छी तरह से हृदयमें लेकर तुम मेरे पास जल्दी आओ । मनोहरलालजी और तपस्वी सुन्दरलालजी का भी होना अति आवश्यक है। अत. सारे सन्तों को साथ में लेकर अवश्य आओ। मनोहरलालजी और तपस्वी सुन्दरलालजी की तो खास तोर पर आवश्यकता है । सो ध्यान में रहें और उन्हें अवश्य लेते आवें । यहां से गब्बूलालजी और मोहनलालजी को इसलिए भेजा है कि वे वहां पर तुम्हें अच्छी तरह से यहां को परिस्थिति को समजावे ताकि कोई वैमनस्य नहीं पैदा होने पावे । ओम् शान्ति । द० जवाहरलाल __मुनिराजों के द्वारा प्राप्त पूज्य श्री के निमंत्रण पत्र पर अपनी स्पष्ट सम्मति प्रकट करते हुए महाराज श्री ने कहा-मैं पूज्य आचार्य श्री के निमंत्रण पत्र का हार्दिक सुभेच्छा के साथ आदर करता हूँ । उन्होंने मुझे योग्य समय में ही याद किया है, यह मेरा सौभाग्य है। किन्तु इतने दूर तक मेरे आने से कोई सुसंगत परिणाम नहीं आ सकता । जब तक आचार्य श्री जी तटस्थ और निस्पक्ष भाव से नही वरतेंगे तबतक सम्प्रदाय का संगठन असंभव है। हमने यह पहले हि स्पष्ट कर दिया है कि तब तक आचार्य श्री जी अपनी संप्रदायके दोषीसाधु को दण्ड देकर उन्हें शुद्ध नहीं कर लेते तब तक हमारे और आपके बीच का मतभेद मिट नहीं सकता । आचार्य श्री जी जानते हुवे भी एक ऐसे मुनि को युवाचार्य पद पर अधिष्ठित करना चाहते हैं जो अपने चतुर्थ महाव्रत से पूर्णतः च्युत हो चुका है । उन्हें संप्रदाय का नेता बनाने को अर्थ है संप्रदाय को शीथिलाचार की गहरी खाई में ढकेल देना । हम ऐसे साधु का नेतृत्व कभी स्वीकार नहीं कर सकतें जिसका मूलवत ही नहीं रहा । संप्रदाय का आचार्य वही हो सकता है जो ज्ञान दर्शन एवं चारित्र से सम्पन्न हो । पूज्य आचार्य श्री को हमने बार बार एतद् विषयक सूचना की थी किन्तु उनको शोथिलाचार पोषक एक व्याक्ति के प्रति पक्षपात पूर्ण नीति के कारण हमारी यह संप्रदाय दो विभागों में विभक्त होने के मार्ग पर खडी है। यदि आचार्यश्री जी हार्दिक भाव से संगठन करना चाहें तो उन्हें एक आदर्श साधुमार्ग के अनुकूल न्याय मार्ग को अपनाना चाहिए । यदि वे दोषी को दण्ड देकर उन्हें शुद्ध करने को तैयार हैं तो मैं उनकी हरतरह को आज्ञा को शिरोधार्य करने के लिए सदैव तैयार हूँ। दूसरी बात निमन्त्रण पत्र में खास कर के मुनिमनोहरलालजी की एवं तपस्वी श्री सुन्दर लालजी को आने का लिखा है अतः वे पूज्य श्री की सेवा में जासकते हैं । महाराज श्री का यह स्पष्ट उत्तर पाकर पं. श्री गब्बूलालजी महाराज ने एवं मोहनलालजी महा- .. राज ने विहार कर दिया । साथ में श्री मनोहरलालजी महाराज, तपस्वी 'मुनि श्री सुन्दरलालजी महाराज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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