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________________ २०९ ये जानते थे कि गुरु दर्शन, संसार की सबसे बडी दुर्लभ वस्तु है । दुर्लभ वस्तु की प्राप्ति के लिए कष्ट सहने ही होते हैं । जो कष्ठों से घबराकर वापस लौट गयां, वह लौट गया, उसका भोग्य लौट गया । प्रभु मार्ग शूरवीरों के लिए है कायरों के लिए नहीं। प्रभु नो मारग छै शूरानो। नहीं कायर नो काम जोने ॥ भोला भाला मनुष्य समझता है कि संसार के भौतिक पदार्थों में ही सुख है । यदि इन्हों वस्तुओं में सुख होता तो प्रभु महावीर जैसे महापुरुष क्यों कठोर त्याग का दुर्गम पथ अपनाते ? वे क्या सुख भोगना नहीं जानते थे ? उन्हें संसार की दृष्टि से सब कुछ प्राप्त था । फिर भी सब छोड कर भाग निकले। आध्यात्मिक सुख के समक्ष उन्हें सांसारिक सुख विष स्वरूप मालूम दिया । वैरागी साहसीक बालक कन्हैयालाल भी उन्हीं के पथ पर चलेजा रहा है। प्रकृति का उपद्रव अपनी पूरी ताकत के साथ प्रतिरोध उत्पन्न कर रहा था । परन्तु विघ्नों को कुचल कर आगे बढ़ना ही वीरत्व की मौलिक परिभाषा है । वीर पुरुष जब अपने मन में कोई निश्चय कर लेता है तो फिर असम्भव को भी सम्भव कर दिखाता है। अन्त में विविध मार्ग की कठिनाइयों को सहते हुए आप गुरु देव की सेवा में पहुँच ही गये। और गुरु चरणों में वन्दन कर दीक्षा देने के लिए निवेदन किया । महाराज श्री ने उत्तर में कहा-माता पिता की आज्ञा लाये हो ? लक ने कहा आज्ञा तो नहीं मिली किन्तु मैं तो घर से भाग कर आप की सेवा में आया है। महाराज श्री ने कहा-जव तक मात पीता की आज्ञा नहीं मिलेगी तब तक दीक्षा नहीं हो सकती । बालक ने कहा-आज्ञा मिले या न मिले । अब मैं वापस लौटकर नहीं जाउंगा गुरुदेव ! दीक्षा दीजिए । मन आकुल हो गया है । अब मैं अधिक समय प्रतीक्षा नहीं कर सकता । महाराजश्री ने दृढता के साथ कहा-यह नहीं हो सकता । शास्त्र का नियम है हम उसका उल्लंघन नहीं कर सकतें । कुछ भी हो, पहले आज्ञा करो फिर दीक्षा की बात होगी । तुम इस समय मेरे पोस रहकर अध्ययन कर सकते हो ? बालक वहीं रहगया। उदयपुर के प्रतिष्ठित श्रावकों ने पत्र द्वारा कन्हैयालालजी के उदयपुर आने की सूचना उनके पिता को कर दी। अमरचन्दजी पत्र पाते ही उदयपुर दोड आये। उन्हें प्रसन्नता थी को चलो कन्हैयालाल ठिकाने पर तो पहुँचगया अन्यथा वे इस चिन्ता में थे कि न मालूम कहाँभटकता होगा । भूख प्यास और सर्दी गर्मी की क्या क्या कठिनाइयां भोग रहा होगा ? दीक्षा की बात चली। पिता पूत्र लम्बी लम्बी चर्चा करते रहें । श्रीमान् दिवान सा. श्री बलवन्तसिंहजी सा० कोठोरी एवं नगर सेठ श्री नन्दलालजी बाफसा मोतीलालजी हिंगड फोज़मलजी जवाहिरलालजी बोरदिबा नंदलालजी महेता आदि ने एवं महाराजश्री ने अमरचन्दजी साहब को समझाना शुरु किया । उदयपुर के ये श्रावक बड़े चतुर थे। अनेक युक्तियों प्रयुक्तियों से वे अमरचन्दजी को समझाने में सफल हए अन्त में उन्होंने स्नेह भरे शब्दों में दीक्षा की आज्ञा प्रदान कर दी । अब क्या था उदयपुर के जैन संघ में एवं वैरागी कन्हैयालाल के हृदय में हर्ष की लहर दौड गई ! उल्लास का पार न रहा । धूम धाम से दीक्षा महोत्सव करने की योजना बनने लगी, श्रीमान् बलवन्तसिंहजी एवं श्री नन्दलालजी सा. बाफना नगर सेठ ने उदयपुर में ही दीक्षा दिलवाने का प्रयत्न प्रारंभ कर दिये । किन्तु अच्छे काम में हजार विनबादाएं आती हैं । तदनुसार वैरागी कन्हैयालालजी बालक होने के नाते इनकी दीक्षा में भी अनेक विघ्न बांधाओं की संभावना थी। उस समय उदयपुर के प्राइमिनिस्टर श्रीसुखदेव प्रसादजी थे । वे बालदीक्षा के कट्टर विरोधी थे । अतः उदयपुर का संघ इस बात को अच्छी तरह जानता था कि श्री सुखदेवप्रसादजी बालक कन्हैयालालजी की दीक्षा में आवश्य वाधक सिद्ध हो सकते हैं। अतः उदयपुर के संघने इस दीक्षा २७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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