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शिशु - मानस के इन विचारों से बुद्धिमान सोच सकते हैं कि भविष्य में अभ्युदय करने वाले महान् आत्माओं के अध्यवसाय भी उच्च कोटि के और प्रशस्त होते हैं । इस शिशु के अध्यवसाय भी अनित्य सुख को छोड़कर शाश्वत सुख प्राप्ति की ओर दोडे और संयम ग्रहण करने के लिए उत्सुक हो उठे । संयम की ओर आपकी ऐसी उत्कट प्रवृत्ति देख आपके मध्यम भ्राता छगनलालजी भी आपके साथ संयम अंगीकार करने के लिए कटिबद्ध हो गये ।
पूर्व संचित शुभकर्मों के कारण आपश्री में जन्मजात वैराग्य भावना थी । फलस्वरूप गुरुदेव के प्रथम दर्शन से ही आप वैराग्य के रंग में पूर्ण रंग गये । पूरे दश वर्ष होने के पूर्व ही तलवार की धार पर चलने के समान कठिन संयम मार्ग को स्वयं की प्रेरणा से धारण करने के लिए तैयार हो गये। इसके लिए किसी को विशेष उद्बोधन करने की आवश्यकता नहीं हुई। आपके इस वैराग्य पद से आपके पिता चौंक उठे । अत्यन्त छोटी उमर के पुत्र होने से पिता की ममता इन्हीं पर अधिक थी । इधर छगनलालजी एवं केन्हैयालालजी दोनों जब वैराग्य पथ के पथिक बनने लगे तो पिता पुत्र के स्नेह वश विचलित हो गये । उन्होंने दोनों को कह दिया । कि हम तुम्हें दीक्षा की आज्ञा नहीं देंगे । महाराज श्री चातुर्मास विराज कर उदयपुर से बिहार करने लगे तो वैरागी कन्हैयालालजी भी महाराजश्री के साथ चलने तैयार हो गया । महाराजश्री ने विहार किया तो कन्हैयालाल भी कपड़ों की थेली लेकर महाराजश्री के साथ हो गया । पिता ने रोकने का खूब प्रयत्न किया किन्तु उस समय उन्हें सफलता नहीं मिली । ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए आप महाराज श्री के साथ रहने लगे । वि. सं १९८७ का चातुमा. महाराजश्री ने उदयपुर में ही व्यतीत किया ।
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श्री मान् अमरचन्दजी सा. वागरेचा आनन्द पूर्वक गृहस्थी का धंधा चलाये जा रहे थे। उन्हें किसी प्रकार की चिन्ता नहीं थी मात्र ऐक ही चिन्ता थी कि उनका प्रिय पुत्र मुनि बनने की धुन में था। । । इसलिए वे प्रयत्नशील थे कि वह मुनि न बनने पाए | उन्हें सफलता पाने की पूरी पूरी आशा थी और इसी आशा के भरोसे कन्हैयालाल को वापस घर लाने के प्रयत्न प्रारम्भ कर दिये । वे एक दिन उदयपुर आये ओर कन्हैयालालजी को समझाने लगे। बहुत लम्बी पिता-पुत्र में बात चीत चली। काफी कडा संघर्ष हुआ किन्तु कन्हैयालाल दबने वाला बालक नहीं था । उन्होंने पिता की दलीलों का सप्रमाण उत्तर दिया !
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समझाने और प्रेमभाव से जब कन्हैयालाल घर आने को तैयार नहीं हुआ तो अब कन्हैयालाल के साथ कठोर वर्ताव होने लगा। असफल मनुष्य जब कम होता है तब वह दण्ड देने पर उतर आता है। अमरचन्दजी साहद और दूसरे सहयोगियों ने मिल कर उन्हें उठाया और घोडे पर बान्धकर जबरदस्ती घर ले आये। यहां उन्हें मारा पीटा और भूखा रखा कोठे में छन्द रखकर ताला जड़ दिया जाता । एक के बाद एक नयी से नई यातनाओं का सिलसिला शुरु हो गया। कभी तो इन्हें झाड से बान्ध दिया जाता था । एक दिन अवसर देखकर ये घर से भाग निकले। मध्य रात्रि का समय था। चारों ओर गहन अन्धकार था । सुनसान जंगल आस पास मनुष्य की छाया तक नहीं सब ओर भय का साम्राज्य अज्ञात पशु पक्षियों के अवाज से भय उत्पन्न होता था । वर्षा की ऋतु थी । काले बादल आकाश में गर्ज रहे थे ओर बीच बीच में बिजलियां चमक रही थी परन्तु देखिए यह बैरागी बालक गुरुदेव के दर्शन करने की उत्कृष्ट भावना से निर्भय और निष्कम्य असे मार्ग पर बढ़ा चला जा रहा है। पूर्ण त्याग की उच्च भूमिका पर आरूढ़ होने के लिए। इन्हें कवार को यह वाणी मार्ग प्रदर्शन कर रही थीलम्बा मारग दूरधन्, विकट पंथ बहुमार । कहत कबीर कस पाईये, दुर्लभ गुरु दीदार
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