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________________ .. यहां ओसवाल जातीय बाघरेचा गोत्रीय श्री अमरचन्दजी नामक एक धर्मनिष्ठ सद्गृहस्थ रहते थे । उनकी पत्नी का नाम श्रीमती गम्भीर बाई था । पति पत्नी दोनों ही धार्मिक आचार विचार के जानकार शान्तस्वाभावी थे। प्रतिदिन सामा. यिक प्रतिक्रमण करना, साधु सन्तों के प्रवचनों का लाभ लेना, रात्री भोजन के त्याग, आठ वनस्पति के सिवाय सर्व त्याग, कंदमूल का त्याग और नीति पूर्वक धन उपार्जन करना इन दोनों का: दैनिक क्रम था। इस प्रकार धार्मिक जीवन व्यतीत करते इनके मगनलालजी छगनलालजी नामके दो पुत्र हुए। इसके पश्चात् वि०सं०१९७६ आसोज सुदी चौदस को एक पुत्र काजन्म हुआ । इसकी तेजस्वीता, मनोहर बदन शरीर की चपलता, सहन शीलता इत्यादि लक्षण स्वाभाविक रीति से ऐसी सूचना देते थे । कि यह बालक भविष्य में उच्च कोटिका सन्त बनेगा । बालक का नाम कन्हैयालाल रखा गया । माता पिता के परम वात्सल्य से इस बालक का लालन पालन होने लगा । कुछ काल के बाद श्रीमती गम्भीरबाई ने एक पुत्री को जन्म दिया उसका नाम चौथीबेन रखा गया । इसके बाद पुनः एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका नाम खूबीलाल रखा गया। बादएक पुत्री भी जन्मी किन्तु जी न सकी ! उस पुत्रो के साथ माता का स्वर्गवास भी हो गया । ___इन अनमोल रत्न को पाकर दम्पतो निहाल हो गये। चार पुत्र एवं एक पुत्री को पाकर उनके हर्ष की सीमा न रही । बाल सुलभ चेष्टाओं से एवं अपनी सुकुमार सुन्दर मुखाकृतियों से ये अपने माता पिता को आनन्दित करने लगे । माता-पिता के प्रेम के साथ साथ बालकों को सुन्दर सुन्दर संप्कार भी प्राप्त होने लगे । बचपन में प्राप्त होने वाले संस्कारों का जीवन के निर्माण में बहूत बडा हाथ होता हैं । बालक के द्वारा ग्रहण किए हुए संस्कारों के अनुसार उसका भावो जीवन बनता है। कन्हैयालालजी बालक थे तब अपनी माता-पिता के साथ स्थानक में साधु साध्वियांजी के व्याख्यानों को सुनने जाया करते थे । बालक कन्हैयालाल अपनी धर्म परायणा एवं मुमुक्षु माता एवं पिता के पास धार्मिक एवं व्यवहारिक शिक्षा प्राप्त करते करते नौ वर्ष के हो गये ! मो समय आपके जीवन को दूसरी दिशा की ओर मोडने वालो एक घटना हई । क्रिम सं. १९८७ के साल में पंडित प्रवर षोडशभाषाविशारद प्रखरवक्ता हमारे चरितनायक श्री घासीलालजी महाराज अपने शिष्य परिवार के साथ मेवाड की मुख्य राजधानी उदयपुर में चातुर्मास बिराज रहे थे । _ये जन-मानस को अच्छी तरह जानते थे इनके व्याख्यान बडे प्रभावशाली एवं रोचक होते थे । छोटे से लगाकर बडे तक सब उनके व्याख्यान को रुचिपूर्वक सुनते थे। उनके व्याख्यान से किसी को भी अरुचि नहीं होती थी । महाराज श्री के प्रवचन उदयपुर में होने लगे। बड़ी संख्या में उदयपुर की जनता महाराज श्री का प्रवचन सुनने लगी । बालक कन्हैयालाल भी अपने पिता के साथ महाराजश्री का व्याख्यान सुनने लगे । महाराजश्री का बालको पर बडा स्नेह था जब उनके पास कोई बालक आता तो उसे आप बडे स्नेह से अपने पास बैठाते, नवकार मंत्र सीखाते एवं छोटी-छोटी धार्मिक कहानियों से उन्हें धार्मिक ज्ञान देते । दूसरे बालकों के साथ कन्हैयालाल भी महाराज श्री की सेवा में बैठते और उनकी बाते बडे ध्यान पूर्वक सुनते । ! शान्त दान्त और परमकान्त मुनिश्री का उपदेश सुनते-सुनते बालक कन्हैयालाल के मन में भक्ति की लहर दौड गई। मुनियों की भव्यता, दयालुता ओर तप का तेज भव्य आत्माओं को आकर्षित कर हो लेते हैं । कुछ दिन तक कन्हैयालाल महाराजश्री का उपदेश श्रवण करता रहा और उनके चरणारविन्दो में अपनी श्रद्धा भक्ति के पुष्प चढाता रहा । महाराजश्री के सानिध्य से एवं वैराग्य पूर्ण उपदेश से इनके हृदय में संसार के प्रति उदासीनता और संयम की प्रति अभिरुचि पैदा हो गई । आपने एक दिन अवसर पाकर पिता के समक्ष दीक्षा ग्रहण करने के विचार प्रगट किये । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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