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एक अमोघ शक्ति है । जैन धर्म में तप की महिमा का विशद वर्णन मिलता है और वह धर्म का प्रधान अंग माना गया है । हमारे चरितनायकजी ने उस दिन तपस्या के विषय में अत्यन्त मार्मिक और प्रभाव पूर्ण उपदेश दिया । उनके निम्न लिखित वाक्य आज भी अन्तः करण में बोजली का संचार कर देते हैं । -
" सम्यक् दर्शन सम्यगू ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्ष का मार्ग बताया गया है । प्रश्न यह रहा कि इस त्रिविध मार्ग ( रत्नत्रय ) से आत्मा का भावी कर्म बन्ध को रोक सकता है किन्तु उसके संचित कर्मो से मुक्ति किस प्रकार मिल सकेगी ? संचित कर्म से मुक्ति के दो ही मार्ग हो सकते हैं या तो उसे भोग लिया जाये या किसी अन्य प्रकार से उसका नाश किया जाये । तात्पर्य वह है कि नवीन कर्मबन्ध को रोकना तो 'संवर' के द्वारा हो सकता है किन्तु संचित का क्षय चारित्र से कैसे होगा ? इस प्रश्न के जवाब में कहा - संचित का क्षय निर्जरा से होता है और निर्जरा का मार्ग केवल 'तपस्या' है । 'तप' एक प्रकार का साधन है जिससे संसारी जीव अपने संचित कर्मों का नाश करके आत्मा की शुद्ध बुद्ध अवस्था प्राप्त कर सकता है । 'तप' एक प्रकार की अग्नि है । जैसे मलीन सुवर्ण अग्नि में तप कर उज्ज्वल होता है, वैसे ही तप रूप अग्नि से पूर्व संचित कर्म नष्ट होकर जीवन शुद्ध, बुद्ध एवं पवित्र हो जाता है । भगवान ने यही कहा है
चरितण निगिण्हाइ तवेण परिसुज्झइ "
अर्थात् चारित्र से नये कर्मों का निग्रह होता है और तप से संचित कर्म क्षय कर आत्मा शुद्ध होती है । कहा भी है
जहा महातलागस्स, सन्निरुद्धे जलागमे । उस्सिचणाए तवणाए कमेण सोसणा भवे ॥१॥
पुरुष
एवं तु संजयस्सवि पावकम्म निरासवे । भव कोडी संचियं कम्म तवसा निज्जरिज्जइ ॥२॥ जैसे किसी बडे जलाशय जल का आय-मार्ग रोक दिया जाने पर पहले का संचित पानी कुछ सूर्य के ताप से और कुछ सिंचाई आदि में लगाकर क्रमशः सूख जाता है । वैसे ही संयम शील के पापकर्म का आश्रव रुक जाने पर करोडों भवों का भी संचित कर्म तप से क्षीण हो जाता है । तपस्वी श्री सुन्दरलालजी महाराज ने लम्बी तपश्चर्या कर मुनिसमाज में एक ऊंचा त्याग का आदर्श स्थापित किया है । एसे सन्त के चरण जिस धूली पर पडते हैं वह धूल भी पवित्र हो जाती है । हम तपस्वोजो जैसी लम्बी तपश्चर्या नहीं कर सकते किन्तु यथा शक्ति जितना त्याग हो सकता है उतना तो करना चाहिए । महाराज श्री के प्रवचन का जनता पर अच्छा प्रभाव पडा । लोगों ने बडी मात्रा में त्यागप्रत्या ख्यान ग्रहण किये । समस्त नगर का उस दिन का वातावरण धर्ममय बन गया था । सामायिक, दया, पौषद तो बडी संख्या में हुए । तपस्वी जी की तपश्चर्या की पूर्णाहुति के दिन गरीब लोगों को चार-चार लड्डू और पुरियों की प्रभावना दी गई। जेल के कैदियों को मिष्ठान्न भोजन दिया गया । अनेक दान पुण्य के कार्य भी उस दिन हुए । उदयपुर के कत्लखाने दो दिन बंद रहें
इस चातुर्मास काल में पं० श्री कन्हैयालालजी महाराज को वैराग्य प्राप्त हुआ। आपका संक्षिप्त परिचय पाठकों की जानकारी के लिए दे रहा हूँ ।
पं मुनि श्री कन्हैलालजी महाराज का जीवन परिचय
जन्मस्थान व वंश परिचय
राजस्थान की वीर भूमी मेवाड के अन्तर्गत गुडली नामका एक गांव है । यह उदयपुर से १० मील पर है । चारो ओर से छोटो छोटी पहाडियों से घिरा हुआ रमणीय स्थान | बडा धर्म प्रिय क्षेत्र है !
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