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________________ २०५ से मेवाड प्रान्त की ओर विहार किया । विहार काल में आपश्री ने जहां कहीं चरण रखें वहां के प्रायः सभी नर-नारियें आपके सदुपदेशों से लाभान्वित होकर दुःख-दर्दो में सदैव शान्ति का अनुभव करने लगे । अपने ओजस्वी और तेजस्वी भाषणों के बल पर मेवाड प्रान्त में अनेक स्थानों पर अहिंसा धर्म का प्रचार कर आपने जैन संस्कृति का महान प्रसार किया । मेवाड प्रान्त के अधिकांश स्थानों में जीव हिंसा बन्द करवा कर आप ने जैन संस्कृति की महान सेवा की ! ____ इस प्रकार मेवाड प्रान्त के विविध क्षेत्रों को पावन करते हुए आप चातुर्मासार्थ उदयपुर पधारे । आपके आगमन से उदयपुर के नगर निवासियों को तो इतनी प्रसन्नता हुई कि उसे शब्द बद्ध नहीं किया जासकता । अत्यन्त प्रसन्नता से उनके रोम-रोम विकसित हो गये । उदयपुर के श्रीसंघ ने आपके शुभागमन से उत्साह पूर्वक हर्ष मनाया । इसे एक प्रकार से महाराजश्री का वरदान ही समझना चाहिये कि मेवाड प्रान्त के क्षेत्रों का आपश्री के द्वारा चरण स्पर्श करने के बाद लोगों में अधिक से अधिक धर्म भावना जागृत हई । चातुर्मास काल में आपके प्रभावशाली व्याख्यान होने लगे । व्याख्यान के समय जैन धर्मी श्रावक श्राविकाओं के अतिरिक्त इतर जनता बड़ी संख्या में उपस्थित होती थी, विशालधर्म स्थानक होते हए भी व्याख्यान के समय जनता को बैठने के लिए स्थानाभाव प्रतीत होने लगा। आपके साथ तपस्वी श्री सुन्दरलालजी महाराज जैसे तपस्वीरत्न थे । फलस्वरूप लोगों के हृदय में तपस्या की अभिरुचि बढने लगी। तपस्वी श्री सुन्दरलालजी महाराज ने निमानुसार लंबी तपश्चर्या प्रारम्भ कर दी। आपके प्रवचन में प्रतिदिन राज्यकर्मचारी सैकड़ों की संख्या में उपस्थित होते थे । उनमें महाराणा भूपालसिंहजी साहब के प्रियपात्र दिवान सा. श्री तेजसिंहजी सा. प्रमुख थे। आपने महाराजश्री के उपदेश से सम्यक्त्व ग्रहण की । एक दिन की घटना है कि महाराणा भूपालसिंहजी के दिवान एवं धर्म निष्ठ श्रावक श्री बलवन्तसिंहजी कोठारी नगर सेठजी श्री नन्दलालजी बाफणा श्रीमान् सेठ श्री फोजमलजी सा. जुहारमलजी बोर दिया। तथा अन्य कुछ प्रमुख श्रावक महाराज श्री की सेवामें बैठे हुए थे । विविध विषयों की चर्चा के साथ साथ आगम ग्रन्थों की भी चर्चा निकली । महाराज श्री ने आगम ग्रन्थों की महत्ता को समझाते हुए आगम ग्रन्थों की आधुनिक शैलो से सम्पादन एवं उनकी नूतन टीका की आवश्यकता बताई । कोठारी जी बडे विचक्षण और वस्तुतत्त्व को समझने वाले महान बुद्धिमान दिवान थे, महाराजश्री के विवेचन का इन पर बडा गहरा असर पडा । वे अत्यन्त प्रसन्न मुद्रा में बोल उठे-“गुरुदेव ! आप आगमों पर टीका रचने का कार्य पुनः प्रारम्भ कर दें । इससे समाज का बडा भारी उपकार होगा । शुभकार्य में मैं एक हजार रुपया देता हूँ। श्रीमान् जुहारमलजी सा. बोरदियाजी भी समीप में ही बैठे थे उनका भी उत्साह बढा और उन्होंने भी एक हजार रुपया देने की घोषणा की । पास में अन्य सज्जन भी उपस्थित थे उन्होंने भो यथाशक्ति इस शुभ कार्य में धनराशि प्रदान की। इन महानुभावों की सत्प्रेरणा से महाराज श्री का उत्साह बढ़ गया और आपने आगामों पर टीका ।लेखने का कार्य प्रारम्भ कर दिया । अनवरत परिश्रम करके चातुर्मास के बीच आपने उपासकदशांग सूत्र पर गृहस्थ धर्म संजीवनि-नामक टीका की रचना की। इसके अतिरिक्त तत्त्व प्रदीप गृहस्थ धर्म कल्पतरु ऐवं लक्ष्मीधर चरित्र प्राकृत भाषा में तैयार किया । हिन्दी कविता भाषा सहित अर्थ छाया भी साथमें दिगइ है। तपस्वीजी श्री सुन्दरलालजी महाराज ने ६४ दिन की सुदीर्घ तपस्या की । इस तपस्या की पूर्णाहुति के दिन सम्पूर्ण मेवाड राज्य में अगता रखा गया । उस दिन समस्त राज्य में जीवहिंसा बन्द रही । हजारों मूक-प्राणियों को अभयदान मिला । श्रावकों ने विविध प्रकार के त्याग-प्रत्याख्यान किये और अन्य धार्मिक कार्य किये । कई कसाई भाईयों ने हिंसा-वृत्ति का त्याग कर जीवन सुधारा । जीवन के लिए तपस्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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