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________________ २०४ झे पर बैठे बातें कर रहे थे । किसानों के कानों पर वह संगीत स्वर पहुँचा । किसानों ने विचारा अपने खेत में कोई अतिथि रुके हुए है, वहां न पानी हैं और न भोजन । अपने खेत के अतिथि भूखे प्यासे रहे यह अपने लिए शोभास्पद नहीं है । इस लिए चलें वहां भोजन पानी लेकर जावें । वह युग कितना पवित्र और अतिथि के प्रति आदर रखने वाला था । वर्तमान में पास पडोस का अतिथि भूखा प्यासा मर भी जाय तो भी परवाह नहीं । चिन्ता नहीं । और वे पुरातनी किसान । अपने खेत के दूरस्थ अतिथि को भोजन पानी देने रवाना हुए । शब्दवेधी बाण छोडनेवाले पृथ्वीराज की तरह वे किसान भी संगीत की ध्वनि जिधर से आ रही थी उसी दिशा की ओर बढते हुए महार!ज श्री के पास पहुंच ही गये । दूर से आवाज दी यहाँ कौन ठहरे हुये हैं । तपस्वी सुन्दरलालजी महाराज बोले भाई, हम लोग जैन साधु हैं। जैन साधु हैं, यह जानते ही वे बिलकुल पास में आये और कहा महाराज आप यहां क्यों ठहरे हैं यहां न गाव है न बस्ती । मुनि श्री ने कहा सूर्यास्त हो जाने से हम यहीं ठहर गए। उन्होंने फिर कहा ऐसी अन्धेरी सुनसान रात्रि में आपको डर नहीं लगता । महाराज श्री ने कहा हम डर जैसी र नहीं लगता । महाराज श्री ने कहा हम डर जैसी कोई वस्तु अपने पास नहीं रखतें इसलिए हमें किसी का डर नहीं लगता। किसान बोले महाराज, आप भूखे-प्यासे होंगे ? हम आपके गायन की आवाज सुन कर भोजन पानी लाए हैं । मुनि श्री ने कहा-हम जैन मुनि रात में कुछ भी खाते पीते नहीं । तुम्हारी भक्ति प्रशंसनीय है । किसान बोले-आप हमारे खेत में भूखे प्यासे सोजाओगे तो हमें पाप लगेगा । आपको तो थोड़ा भी लेना पडेगा, हमारा आग्रह है मान जाओं । मुनि श्री ने कहा तुम वहां से श्रद्धा भावना से आये हो तो तुम्हें अपनी पवित्र भावना का लाभ मिल गया, हम रात को खाते पीते ही नहीं । तुम आये होतो सत्संग का लाभ ले लो । मुनि श्रीने तपस्वी श्रीसुन्दरलालजी महाराज को उपदेश देने की आज्ञा दी। तपस्वीजी ने उन्हें कथा सुनाई। कथा सुनकर प्रसन्नचित्त से वे अपने स्थान पर गए । प्रातः आपने विहार कर या । आप पुष्करजी पधारे । वहां कुछ दिन विराज कर अजमेर पधारे । वहां सेठ गाढमलजी लोढा की कोठी में बिराजे । व्याख्यान के लिए प्रतिदिन शहर में पधारते । उस अवसर पर ब्यावर से सेठ श्रीचन्दजी अब्बाणी आदि ४-५ गृहस्थ ब्यावर पधारने की विनती करने आये । श्रावकों को विनती मानकर आप ब्यावर पधारे । ब्यावर संघ ने बडी श्रद्धा और भव्य स्वागत के साथ नगर प्रवेश कराया । उदयपुर संघ चातुर्मास की विनती लेकर ब्यावर आया । ब्यावर संघ ने भी महाराज श्री को चातुर्मास को विनंती की । किन्तु उदयपुर संघ का आत्याग्रह होने पर एवं आचार्यश्री की आज्ञा मिलने पर आपने आगामी चातुर्मास उदयपुर करने की विनती मान ली ब्यावर से विहार कर छोटे बडे क्षेत्रों को पावन करते हुए आप भिलवाडा पधारे । वहां नथमलजी की बगीची में बिराजना हुआ । व्याख्यान के लिए दर रोज गांव में पधारते थे। वहां से गंगापुर बाले श्री राजमलजी दीपुलालजी शंका की विनती पर आप गंगापुर पधारे । प्रतिदिन आप के बाजार में व्याख्यान होनेलगे । ब्याख्यान का जनता पर बड़ा अच्छा प्रभाव पडा । गंगापुर से पोटला, जितास, रेलमगरा होते हुए मावली पधारे । श्री फौजमलजी कोठारी के आग्रह से तीन व्याख्यान दे कर आप खेमली पधारे । यहां ५०-५० व्यक्ति उदयपुर से आपके दर्शनार्थ पधारे । वहां से आप गुडल हुए उदयपुर पधारे । गुडली से उदयपुर तक पधारते हुए मार्ग में उदयपुर के श्रावक श्राविकाओं का ताता लगा रहा था । वि. सिं. १८८७-८८ का चातुर्मास उदयपुर में तीन वर्ष तक बीकानेर और थली प्रांत के क्षेत्रों को पावन करने के बाद आपने पूज्यश्री के आदेश Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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