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अब प्रश्न यह होता है कि जिन वातरशना मुनियों के धर्मो की स्थापना करने तथा रजोजल्लिक वृत्तिद्वारा कैवल्य की प्राप्ति सिखाने के लिए भगवान श्रीऋषभदेव का अवतार हुआ था । वे कब से भारतीय साहित्य में उल्लिखित पाये जाते हैं इसके लिए जब हम भारत के प्राचीनतम ग्रन्थ वेदोंको देखते हैं तो हमें वहाँ भी वातरशना मुनियों का उल्लेख अनेक स्थलों में दिखाई देता है।
ऋग्वेद की वातरशना मुनियो के सम्बन्ध की ऋचाओं में उन मुनियों की साधनाएं ध्यान देने योग्य है । एक सूक्त की कुछ ऋचाए देखिये
मुनयो वातरशनाः पिशंगा वसते मला । वातस्यानु ब्राजियन्ति यद्देवासो अविक्षत ॥
उन्मदिता मौने येन वातां आतस्थिमा वयम् । शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभिपश्यथ ॥ विद्वानों के नाना प्रयत्न होने पर भी अभी तक वेदों का निस्सन्देह रूपसे अर्थ बैठाना संभव नहीं हो सका । तथापि सायन भाष्य की सहायता से उक्त ऋचा का अर्थ इस प्रकार होता है-अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं, जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं । जब वे वायुकी गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक लेते हैं, तब वे अपनी तप की महिमा से दीव्य देदीप्पमान होकर देवता स्वरूप को प्राप्त हो जाते हैं । सवलौकिक व्यवहार को छोडकर हमेंसा मौनवृक्ति से उन्मत्तवत् (उन्कृष्ट आनन्दसहित) वायु भाव को (अशरीरि ध्यानवृत्ति) को प्राप्त होते हैं, और तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीर मात्र को देख पातेहो । हमारे सच्चे आभ्यन्तर स्वरूप को नहीं । एसा वातरशामुनि प्रगट करते हैं । ऋग्वेद में उक्त ऋचाओं के साथ 'केशी' की स्तुति की गई है
केश्यग्नि केशीविषं केशी बिभर्ति रोदसी ।
केशी विश्वं स्वईशे केशीदं ज्योतिरुच्यते ॥ ऋग्वेद १०, १३६, १) केशी अग्नि जल तथा स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है । केशी समस्त विश्व के तत्त्वों का दर्शन करता है । केशी ही प्रकाशमान (ज्ञान) ज्योति (केवलज्ञानी) कहलाता हैं ।
केशी की यह स्तुति उक्त वातरशना मुनियों के वर्णन आदि में की गई है, जिससे प्रतीत होता है कि केशी वातरशना मुनियों के वर्णन के प्रधान थे ।
ऋग्वेद के इन केशी व वातरशना मुनियों की साधनाओं की तुलना करने योग्य है। ऋग्वेद के वातरशना मुनि और भागवत के वातरशना श्रमण ऋषि एक ही संप्रदाय के वाचक है । इसमें तो किसी को किसी प्रकार का सन्देह होने का अवकाश नहीं दिखाई देता । केशी का अर्थ केशधारी होता है जिसका अर्थ सायनाचार्य ने 'केशस्थानीय रश्मियों को धारण करनेवाले किया है और उससे सूर्य का अर्थ निकाला है। किन्तु उसकी कोई सार्थकता व संगति वातरशना मुनियों के साथ नहीं बैठती । जिनकी साधनाओं का उस सूक्त में वर्णन है । केशी स्पष्टतः वातरशना मुनियों के अधिनायक ही हो सकते हैं जिनकी साधना में मल धारण मौनवृत्ति और उन्माद भावका विशेष उल्लेख है । सूक्त में आगे उन्हें ही "मुनि देवस्य देवस्य सौकृत्याय सखा हितः” (ऋ. १०-१३६, ४ अर्थात् देव देवों के मुनि व उपकारी और हितकारी सखा कहा गया है । वातरशना शब्द में और मलरूपी वसन धारण करने में उनकी नाग्न्यवृत्ति का भी संकेत है । इसकी भागवत पुराण में ऋषभदेव के वर्णन से तुलना कीजिए--
उर्वरित-शरीरमात्र–परिग्रह उन्मत्त इव गगनपरिधानः प्रकीर्णकेशः आत्मन्यारोपिताहवनीयो ब्रह्मावर्तात् प्रधबाज । जडान्ध-मूक बधिर पिशाचोन्मादकवद् अवधूत वेशो अभिभाष्यमाणोऽपि जनानां गृहित मौनवृतः
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