SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 21
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६ से वन में आग लग गई और उसी में उन्होंने अपने को भस्म कर डाला । भागवत पुराण में यह भी कहा गया है कि ऋषभदेव के इस चरित्र को सुनकर कौल, क व कूटक का राजा अर्हन् कलयुग में अपनी इच्छा से उसी धर्म का संप्रवर्तन करेगा, इत्यादि । इस वर्णन से इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि भागवत पुराण का तात्पर्य जैन ग्रन्थों में वर्णित ऋषभदेव से ही है और अर्हन् राजा द्वारा प्रवर्तित धर्म का अभिप्राय जैन धर्म से । अतः यह आवश्यक हो जाता है कि भागवत पुराण तथा वैदिक परम्परा के अन्य प्राचीन ग्रन्थों में ऋषभदेव के सम्बन्ध की बातों की कुछ गहराई से जांच पड़ताला की जाय । भागवत पुराण में कहा गया है वर्हिषि तस्मिन्नेव विष्णुदत्त भगवान परमर्षिभिः प्रासादितो नाभः प्रियचिकीर्षया तदवरोधायने मेरु देव्या धर्मात् दर्शयितुकामो वातदशनां श्रमणानाम् ऋषीणाम् उर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तन्वावततार " (भागवत पु० ५. ३. २०) “यज्ञ में परमऋषियों द्वारा प्रसन्न किये जाने पर विष्णुदत्त पारीक्षित स्वयं श्री भगवान(विष्णु) महाराज नाभि को प्रिय करने के लिये उनके रनवासमें महारानी मरुदेवी के गर्भ में आये । उन्होंने इस पवित्र शरीर का वातरशना श्रमणऋषियों के धर्मो को प्रकट करने की इच्छा से ग्रहण किया ।" भागवत पुराण के इस कथन में दो बाते विशेष ध्यान देने योग्य हैं, क्योंकि उनका भगवान ऋषभदेव के भारतीय संस्कृति में स्थान तथा उनकी प्राचीनता और साहित्यिक परम्परा से बडा घनिष्ठ और महत्वपूर्ण सम्बन्ध है । एक तो यह कि ऋषभदेव की मान्यता और पूज्यता के सम्बन्ध में जैन और हिन्दुओं के बीच कोई मतभेद नहीं है । जैसे वे जैनों के आदि तीर्थंकर हैं, उसी प्रकार वे हिन्दुओं के लिए साक्षात् भगवान विष्णु के अवतार है । उनके ईश्वरावतार होने की मान्यता प्राचीनकाल में इतनी बद्धमूल होगई थी कि शिवमहापुराण में भी उन्हें शिव के अट्ठाईस योगावतारों में गिनाया गया है (शिव महापुराण ७,२,९) दूसरी बात यह है कि प्राचीनता में यह अवतार राम और कृष्ण के अवतारों से भी पूर्व का माना गया है । इस अवतार का जो हेतु भागवत पुराण में बतलाया गया है उससे श्रमणधर्म की परम्परा भारतीय साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद से निःस्सन्देह रूप से जुड़ जाती है। ऋषभावतार का हेतु वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म को प्रगट करना बतलाया गया है । भागवत पुराण में यह भी कहा गया है कि अयमवतारो रजसोपप्लुत- कैवल्योपशिक्षणार्थः भाग० पु० ५, ६, १२ । - अर्थात् भगवान का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगो को कैवल्य की शिक्षा देने के लिये हुवा । किन्तु उक्त वाक्य का यह अर्थ भी संभव है कि यह अवतार रज से उपप्लुत अर्थात् रजो धारण (मल धारण) वृत्ति द्वारा कैवल्य प्राप्ति की शिक्षा देने के लिये हआ था । जैन मुनियों के आचार में अस्नान, अदन्तधावन जल्ल मल परिषह आदि द्वारा रजोधारण संयम का आवश्यक अंग माना गया है। बुद्ध के समयमें भी रजोजल्लिक श्रमण विद्यमान थे बुद्ध ने श्रमणों की आचार प्रणाली में व्यवस्था लाते हुए एक बार कहा था नाहं भिक्खवे संघाटिकस्य संघाटि धारण मत्तेग सामजं वदाभि, अचेलकस्स अचेलकमत्तेण रजोजल्लिकस्स रजोल्लिक मत्तेण...जटिलकस्स जटाधारणमत्तेग साभज वदाभि । अर्थात हे भिक्षुओ मैं संघाटिक के संघाटिधारण मात्र से श्रीमण्य नहीं कहता । अचेलक के अचेलकत्व मात्रसे, रजोजल्लिकके रजोजल्लित्व मात्र से और जटिलक के जटाधारण मात्र से भी श्रामण्य नहीं कहता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy