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________________ ५ त्रिधा बद्धो वृषभोरोरवीती । महोदेवो मर्त्या आविवेश ॥ ऋग्वेद ॥। ४ । ५८ । ३ ।। मन, वचन, काया के तीनों योगों से बद्ध संयत वृषभ ने घोषणा की कि महादेव अर्थात् परमात्मा मर्यो में निवास करता है उन्होंने स्वयं कठोर तपश्चरणरूप साधना कर वह आदर्श जनता के समक्ष प्रस्तुत किया । इसलिए ही ऋग्वेद के मेधावी महर्षिने लिखा है कि " तन्मर्त्यस्य देवत्व सजातः मयः ॥ [ऋग्वेद ३१ । १७ ।।] अर्थात् ऋषभ स्वयं आदि पुरुष थे जिन्होंने सबसे प्रथम मर्त्य दशा में देवत्व की प्राप्ति की थी । अथर्ववेद का ऋषि मनुष्यों को ऋषभदेव का आवाहन करने के लिए यह प्रेरणा देता है कि " अहो मुचं वृषभं यज्ञियानं विराजन्तं प्रथममध्वराणाम् । अपां न पातमश्विनां हुवे दिय इंद्रियेण तमिन्द्रियं धत्तभोजः ॥ अथर्ववेद कारिका ।। १९ । ४२ । ४ ॥ पापों से मुक्त पूजनीय देवताओं में सर्व प्रथम तथा भवसागर के पोतको हृदय से आवाहन करता हू । हे सहचर बन्धुओं ! तुम आत्मीय श्रद्धा द्वारा उसके आत्मबल और तेज को धारण करो । क्यों कि वे प्रेम के राजा है उन्होंने उस संघ की स्थापना की है जिसमें पशु भी मानव के समान माने जाते थे और उनको कोई भी मार नहीं सकता था । " नास्य पशून समानान् हिनस्ति [ अथर्ववेद ]" रचित हैं । ये व्यास महर्षि महाभारत के समयवर्ती बतदेखना है कि पुराण इस विषय में क्या कहते हैं । श्रीमद् अठारह पुराण महर्षि व्यास के द्वारा लाएँ जाते हैं । चाहे कुछ भी हो हमें यह भागवत में श्री ऋषभ देव भगवान का उल्लेख इस प्रकार से किया गया है- नित्यानुभूत निजलाभनिवृत्ततृष्णः श्रेयस्य तद्रचनया चिरसुप्तबुद्धेः । लोकस्य यः करुणया भयमात्मलोक-माख्यान्नमो भगवते ऋषभाय तस्मै ॥ Jain Education International जिन्होंने विषय भोगों की अभिलाषा करने के कारण अपने वास्तविक श्रेय से भूले-बिसरे मानवों को करुणावश निर्भय आत्मलोक का उपदेश दिया और जो स्वयं निरन्तर अनुभव करने वाले आत्मस्वरूप की प्राप्ति के द्वारा सब प्रकार की तृष्णा से मुक्त थे, उन भगवान श्री ऋषभदेव को नमस्कार है । शिवपुराण में कहा है श्रीमद् भागवत ५ | ६ |१९|५६॥ कैलास पर्वते रम्ये, वृषभोऽयं जिनेश्वरः । चकार स्वावतारच, सर्वज्ञः सर्वगः शिवः ॥ केवलज्ञान द्वारा सर्वव्यापी, कल्याण स्वरूप, सर्वज्ञान जिनेश्वर ऋषभदेव सुन्दर कैलास पर्वत पर उतरे । इस में आया हुआ वृषभ और जिनेश्वर शब्द जैनधर्म को सिद्ध करते हैं । इतना ही नहीं श्रीमद् भागवत पुराण के पाँचवें स्कन्ध के प्रथम छ अध्यायों में ऋषभदेव के वंश, जीवन व तपश्चरण का वृत्तांत मिलता है । उनके माता पिता के नाम वर्णित हैं ।, जो सभी मुख्य मुख्य बातों में जैन कथा ग्रन्थों से नाभि और मरुदेवी पाये जाते हैं । तथा उन्हें स्वयंभू, मनसे पांचवी पीढी में इस क्रम से कहा गया है स्वयंभू मनु, प्रियव्रत, अग्नीध्र, नाभि और ऋषभ । उन्होंने अपने जेष्ठ पुत्र भरत को राज्य देकर संन्यास ग्रहण किया । वे नम्र रहने लगे ( अमूर्छाभाव) और केवल शरीर मात्र ही उनके पास था । लोगों द्वारा तिरस्कार किये जाने, गाली गलौज किये जाने व मारे जाने पर भी वे मौन ही रहते थे । अपने कठोर तपश्चरण द्वारा उन्होंने कैवल्य की प्राप्ति की । तथा दक्षिण कर्णाटक तक नाना प्रदेशों में परिभ्रमण किया । वे कुटकाचल पर्वत के बन में योग की परमोच्च साधना में विचरने लगे । वासों की रगड For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003976
Book TitleGhasilalji Maharaj ka Jivan Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupendra Kumar
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1975
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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