________________
४
( ६ ) सत्यप्रवाद पूर्व — इसमें सत्यरूप या सत्यवचन का विस्तृत वर्णन हैं । इसमें छह अधिक एक करोडपद है ।
(७) आत्मप्रवाद पूर्व — इसमें अनेक नय तथा मतों की अपेक्षा से आत्मा का प्रतिपादन किया गया है । इसमें छब्बीस करोड पद है ।
(८) कर्मप्रवाद पूर्व - जिसमें आठ कर्मों का निरूपण प्रकृति स्थिति, अनुभाग और प्रदेश आदि भेदों द्वारा विस्तृत रूप से प्रतिपादन किया गया है । इसमें एक करोड अस्सी लाख पद हैं ।
(९) प्रत्याख्यानप्रवाद पूर्व — इसमें प्रत्याख्यानों का भेद प्रभेद पूर्वक वर्णन है । इसमें चौरासी लाख पद हैं ।
(१०) विद्यानुप्रवाद पूर्व — इस पूर्व में विविध प्रकार की विद्या तथा सिद्धियों का वर्णन एक करोड दस लाख पद है ।
(११) अवन्ध्यपूर्व — इसमें ज्ञान, तप, संयम आदि शुभ फलवाले तथा प्रमाद आदि अशुभ फलवाले अवन्ध्य अर्थात् निष्फल न जानेवाले कार्यो का वर्णन है । इसमें छवीस करोड पद है ।
(१२) प्राणायु प्रवाद पूर्व — इसमें दस प्राण आयु आदि का भेद प्रभेद पूर्वक विस्तृत वर्णन है । इसमें एक करोड छप्पन लाख पद है ।
(१३) क्रियाविशाल पूर्व — इसमें कायिकी अधिकरणिकी आदि तथा संयम में उपकारक क्रियाओं का वर्णन है । इसमें नौ करोड पद है ।
। इसमें
(१४) लोकविन्दुसार पूर्व - लोक में अर्थात् संसार में श्रुतज्ञान में जो शास्त्र बिन्दु की तरह सब से श्रेष्ठ है, वह लोक बिन्दुसार है । इसमें साढे बारह करोड पद है ।
पूर्वी में वस्तु — पूर्वी के अध्याय विशेषों को वस्तु कहते हैं ।
वस्तुओं के अवान्तर अध्यायों को चूलिकावस्तु कहते हैं ।
।
उत्पादपूर्व में दस वस्तु और चार चूलिका वस्तु है । अग्रायणीय पूर्व में चौदह वस्तु हैं और बारह चूलिका वस्तु हैं । वीर्यप्रवादपूर्व में आठ वस्तु और आठ चूलिका वस्तु है । अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्वमें अठारह वस्तु और दस चूलिका वस्तु है ज्ञान प्रवाद पूर्व में बारह वस्तु हैं । सत्यप्रवाद पूर्व में दो वस्तु है । आत्मप्रवाद पूर्व में सोलह वस्तु है । कर्मप्राद पूर्वमें तीस वस्तु । प्रत्याख्यान पूर्वमें बीस । विद्यानुप्रवाद पूर्व में पंद्रह । अवन्ध्य पूर्वमें बारह प्राणायु पूर्व में तेरह । क्रिया विशाल पूर्व में तीन लोक विन्दुसार पूर्व में पच्चीस । चौथे से आगे के पूर्वो में चूलिका वस्तु नहीं है ।
वैदिक ऋषि भक्ति-भावना से प्रेरित होकर उस महाप्रभु की स्तुति करता हुआ कहता है
मखस्य ते तीवषस्य प्रजूतिमियभि वाचमृताय भूषन् । इन्द्र क्षितीमामास मानुषीणां विशां दैवीनामुत
पूर्व यायाः ॥ ऋवैद ॥। २ । ३४ ॥ २ । हे आत्मदृष्टा प्रभो ! परम सुखपाने के लिए मैं तेरी शरण में आना चाहता हू, क्योंकि तेरा उपदेश और तेरी वाणी शक्तिशाली है - उनको मैं अवधारण करता हूँ । हे प्रभो ! सभी मनुष्यों और देवों में तुम्ही पहले पूर्व या पूर्वगत ज्ञान के प्रतिपादक हो
।
Jain Education International
'जे अप्पा से परमप्पा' आत्मा ही परमात्मा है यह जैनधर्म का मूल सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त को ऋग्वेद के शब्दो में भगवान श्री ऋषभदेव ने इस रूप में प्रतिपादित किया -
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org