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तूष्णीं चमू । परागवलम्बान- कुटिल-जटिल - कपिश केश भूरि- भारः अवधूतमलिननिजशरीरेण ग्रह ग्रहीत -
इवाहश्य भा० पु० ५-६ २८-३१
अर्थात् ऋषभदेव भगवान के शरीरमात्र परिग्रह बच रहा था। वे उन्मत्त के समान नम वेशधारी विखरे हुए केशों सहित आहवनीय अग्नि को अपने धारण करके ब्रह्मावर्त देश से प्रत्रजित अन्ध, मूक बधिर पिशाचोन्माद युक्त जैसे अवधूतवेश में लोगों के बुलाने पर हुए चुप रहते थे । ... सब ओर लटकते हुए अपने कुटिल, जटिल कपिश और मलीन शरीर सहित वे दृष्टिगोचर होते थे ।
प्रवजित हुए। वे ज भी मौन वृत्ति धारण किये केशों के भार सहित अवधूत
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यथार्थतः यदि ऋग्वेद के उक्त सूक्त को तथा भागवत पुराण में वर्णित ऋषभदेव के चरित्र को सन्मुख रखकर पढाजाय तो पुराण में वेद के सूक्त का विस्तृत भाष्य किया गया-सा प्रतीत होता है। वही बात रशना या गगन परिधान वृत्ति, केशधारण, कपिशवर्ण, मलधारण मौन और उन्माद भाव समान रूप से दोनों में वर्णित है ऋषभ भगवान के कुटिल केशों की परम्परा प्राचीनतम काल से आजतक अक्षुण्ण रूपसे पाई जाती है । यथार्थतः समस्त तीर्थंकरों में केवल ऋषभदेव के सिर पर ही कुटिल केशों को धारण करने का उल्लेख आता है । इस सम्बन्ध में मुझे केशरिया नाथ का स्मरण आता है जो ऋषभनाथ का ही नामान्तर है। केशर, केश, और जटा एक ही अर्थ के वाचक है "सटा जटा केसरयो" सिंह भी अपने केशों के कारण केसरी कहलाता है। इस प्रकार केशी और केशरी एक ही केसरिया नाथ या ऋषभदेव के वाचक प्रतीत होते है । केशरीयानाथ पर जो केशर चढाने की विशेष मान्यता प्रचलित है वह नाम साम्य के कारण उत्पन्न हुई प्रतीत होती है । वह जैन सिद्धान्त से सर्वथा विरुद्ध है जैन ग्रन्थों में भी ऋषभदेव की जटाओं का उल्लेख किया गया है । इस प्रकार ऋग्वेद के केशी और वातरशना मुनि तथा भागवत पुराण के ऋषभदेव और वातरशना श्रमण ऋषि एवं केसरियानाथ ऋषभ तीर्थकर और उनका निर्ग्रन्थ संप्रदाय एक ही सिद्ध होते हैं ।
उक्त वातरशना मुनियों की जो मान्यता व साधनाए वैदिक ऋचाओं में भी उल्लिखित हैं । उन पर से हम इस परम्परा को वैदिक परम्परा से स्पष्टतः पृथक् रूप से समझ सकते हैं। वैदिक ऋषि वैसे त्यागी और तपस्वी नहीं थे जैसे ये वातरशना मुनि वैदिक ऋषि स्वयं ग्रहस्थ है यज्ञ सम्बन्धी विधि विधान में आस्था रखते हैं और अपनी इह लौकिक इच्छाओं जैसे पुत्र, धन, धान्य आदि सम्पत्ति की प्राप्ति के लिये इन्द्रादि देवी देवताओं का आहवान करते कराते हैं । तथा इनके उपलक्ष में यजमानों से धन-सम्पत्ति का दान स्वीकार करते हैं । किन्तु इनके विपरीत ये वातरशना मुनि उक्त क्रियाओं में रत नहीं होते। समस्त क्रिया गृहद्वार स्त्री- पुत्र धन-धान्य आदि परिग्रह, यहां तक की वस्त्र का भी परित्याग कर भिक्षावृत्ति से रहते हैं । शरीर का स्नानादि संस्कार न कर मल धारण किये रहते हैं। मौनवृत्ति से रहते हैं तथा अन्य देवी देवताओं की आराधना से मुक्त रहकर नित्य आत्मध्यान में ही अपना कल्याण मानते हैं । स्पष्टत: यह उस श्रमण परम्परा का प्राचीन रूप हैं जो आगे चलकर अनेक आवैदिक संप्रदायों के रूप में प्रगट हुई और जिनमें से दो अर्थात् जैन और बौद्ध संप्रदाय आज तक भी विद्यमान है । प्राचीन समस्त भारतीय साहित्य वैदिक, बौद्ध और जैन तथा शिलालेखों में भी ब्राह्मण और श्रमण संप्रदाय का उल्लेख मिलता है। जैन और बौद्ध साधु आजतक भी भ्रमण कहलाते हैं। वेदिक परम्परा के धार्मिक गुरु कहलाते थे ऋषि, जिनका वर्णन ऋग्वेद में बारं बारं आया है । किन्तु श्रमण परम्परा के साधुओं की संज्ञा मुनि थी; जिनका उल्लेख ऋग्वेद में केवल उन वातरशना मुनियों के सम्बन्ध को छोड़ अन्य नहीं आया। ऋषि मुनि कहने से दोनों सप्रदायों का ग्रहण समझना चाहिये । पीछे परस्पर इन संप्रदायों का खूब आदान प्रदान हुआ और दोनों शब्दों को प्रायः एक दूसरे का पर्यायवाची माना जाने लगा ।
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